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लाउडस्पीकरेण संस्थिता

डॉ सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार जिसने भी लाउडस्पीकर की ईजाद की, वह या तो खुद बहरा था या दूसरों को बहरा समझता था या उन्हें बहरा करना चाहता था. क्योंकि, इन तीन कारणों में से ही किसी एक या दो या तीनों कारणों से कोई जोर-जोर से बोल कर अपनी आवाज दूसरों तक पहुंचाना चाहता […]

डॉ सुरेश कांत

वरिष्ठ व्यंग्यकार

जिसने भी लाउडस्पीकर की ईजाद की, वह या तो खुद बहरा था या दूसरों को बहरा समझता था या उन्हें बहरा करना चाहता था. क्योंकि, इन तीन कारणों में से ही किसी एक या दो या तीनों कारणों से कोई जोर-जोर से बोल कर अपनी आवाज दूसरों तक पहुंचाना चाहता है.

गौर कीजिये, जब मोबाइल पर आपको दूसरे की आवाज कम सुनाई देती है या सुनाई ही नहीं देती, तो आप खुद जोर-जोर से बोलने लगते हैं. क्यों? सुन तो आपको नहीं रहा, फिर आप क्यों जोर-जोर से बोलने लगते हैं?

लाउडस्पीकर के आविष्कार से पहले आदमी को खुद ही लाउडस्पीकर बनना पड़ता था, जिसका वर्णन कबीर ने बहुत अच्छी तरह से किया है. कबीर के दोहों से पता चलता है कि उनके जमाने में कुछ ऐसे लोग पाये जाते थे, जो खुदा को बहरा मान कर चलते थे. लिहाजा खुदा को अपनी बात सुनाने का उन्होंने यह नायाब तरीका खोजा था कि पहले तो वे लंबे अरसे तक कांकर-पाथर जमा करते रहते थे और फिर उन्हें जोड़ कर मसजिद बना लेते थे.

इसके लिए वे किस ‘एड्हेसिव’ का इस्तेमाल करते थे, इसका अलबत्ता कबीर ने कोई जिक्र नहीं किया. बेशक यह फेविकोल से भी ज्यादा असरदार रहा होगा, जिसका ज्वलंत प्रमाण बाबरी मसजिद रही, जिसे ढहाने में समाज के कुछ बहादुर लोगों को भी बहुत मशक्कत करनी पड़ी. मसजिद बनाने के बाद मुल्ला नामक ये लोग मसजिद पर जा चढ़ते थे और मुर्गे की तरह बांग देने लगते थे, जो कि प्रकृति का एकमात्र लाउडस्पीकर है. और इस तरह बहरे खुदा को भी सुनने पर मजबूर कर देते थे.

लाउडस्पीकर बनानेवाले का जो भी प्रयोजन रहा हो, लोगों ने उसका उन प्रयोजनों के लिए भी इस्तेमाल किया, जो उसके प्रयोजन थे ही नहीं और फिर तो केवल उन्हीं प्रयोजनों के लिए किया.

छुटपन में जब हमारे गांव में सांग (स्वांग) भरता था, तो उसमें लोग लाउडस्पीकर पर अपने नाम से अपने गुप्त दान की घोषणा करवाते थे, ताकि सारे गांव को पता चल जाये कि फलां आदमी ने इतने रुपये का गुप्त दान किया है. इससे उसका नाम होता था और इससे भी बड़ी बात यह कि दूसरों का नहीं होता था. इससे जिनका नाम नहीं होता था, वे भी, जिनका होता था उनसे जलते हुए, इसी भांति गुप्त दान करने के लिए प्रेरित होते थे.

इस तरह समाज में उस दानशीलता का प्रसार होता था, जिसका फल युधिष्ठिर के पूछने पर ऋषि व्यास ने तपस्या से भी बढ़ कर बताया था और वह शायद इसलिए कि तपस्या पहाड़ों पर जाकर करनी पड़ती थी, जहां लाउडस्पीकर नहीं होते थे. और तुरत दान तो महाकल्याण ही बताया गया है. कम-से-कम पाने वाले का तो महाकल्याण तुरत ही नहीं, फुरत भी यानी तुरत-फुरत हो जाता है. जरूर यह कहावत दान देनेवालों ने नहीं, लेनेवालों ने बनायी होगी.

लाउडस्पीकर का सबसे बढ़िया प्रयोग हमने धर्म द्वारा सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया. अगर किसी मुहल्ले में कोई बुढ़ऊ बीमार हों और टपक न रहे हों, तो लाउडस्पीकरमय भगवती-जागरण करवा लीजिये. भगवती ने चाहा तो सुबह तक मुराद पूरी.

बोलो अंबे मात की जय! या देवी सर्वभूतेषु लाउडस्पीकरेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:. जागरण में भले-चंगे लोग भी जागने पर मजबूर हो जिंदगी का रण छोड़ कर रणछोड़दास बन जाते हैं, बूढ़े-बीमारों की तो बिसात ही क्या! कोई युवक-युवती रात में अपनी पढ़ाई-लिखाई के बल पर किसी परीक्षा में मैदान मार लेने पर उतारू हो और आपसे देखा न जा रहा हो, तो भी जागरण से बढ़ कर रामबाण उपाय दूसरा नहीं!

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