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इंटरनेट की देहाती दुनिया!

गिरींद्र नाथ झा ब्लॉगर एवं किसान दोपहर में फेसबुक मैसेज बॉक्स में एक संदेश गिरता है, ‘मैं संतोष, पहचाना क्या?’ मैंने बिना लाग-लपेट के ‘नहीं’ लिख दिया, लेकिन मुझसे रहा न गया और तत्काल संतोष नाम के इस फेसबुकिया मेहमान के एकाउंट को खंगालने लगा. पता चला कि यह तो संतोष विश्वास है अपने गांव […]

गिरींद्र नाथ झा

ब्लॉगर एवं किसान

दोपहर में फेसबुक मैसेज बॉक्स में एक संदेश गिरता है, ‘मैं संतोष, पहचाना क्या?’ मैंने बिना लाग-लपेट के ‘नहीं’ लिख दिया, लेकिन मुझसे रहा न गया और तत्काल संतोष नाम के इस फेसबुकिया मेहमान के एकाउंट को खंगालने लगा. पता चला कि यह तो संतोष विश्वास है अपने गांव का. संतोष लुधियाना के समीप एक गांव में किसी बड़े किसान के यहां काम करता है. वह दस साल की उम्र में ही गांव से निकल गया था. उसने स्कूली पढ़ाई नहीं की है. ऐसे में जब देवनागरी में उसका संदेश पढ़ने को मिला, तो मैं सोचने लगा कि मोबाइल कितना कुछ नया कर रहा है. इस वेब संसार ने स्मार्टफोन के जरिये दूरियों को पाटने की खूब कोशिश की है.

मुझे इंटरनेट की बहुयामी दुनिया का सबसे रोचक अध्याय मोबाइल लगता है. दरअसल, अब गांव-घर में भी बड़ी संख्या में लोग मोबाइल के जरिये इंटरनेट की दुनिया में रमे हुए हैं. कम मूल्य के स्मार्टफोन ने सारी दूरियां पाट दी है. यदि आप गांव के समीप के बाजारों से गुजरेंगे, तो मोबाइल सेवा देनेवाली कंपनियों के बड़े-बड़े होर्डिंग देखेंगे. मोबाइल रिचार्ज की दुकान पर इंटरनेट प्लान का पोस्टर चस्पा मिलता है. वहां पर युवा वर्ग 2जी-3जी की माला जपते दिख जायेगा.

ग्रामीण इलाकों को इंटरनेट-मोबाइलमय बनता देख मन खुश होता है, लेकिन इन सबके साथ इंटरनेट के जाल को भी समझने की जरूरत है. मेरे और संतोष की कहानी ‘मोबाइल-इंटरनेट संगम’ से ही शुरू होती है. संतोष पढ़ा-लिखा नहीं है, लेकिन उसे पता है कि गूगल क्रोम के अपग्रेडेड वर्जन से मोबाइल पर तेजी से ब्राउज किया जा सकता है. पंजाब में रहते हुए वह धान के उन्नत बीजों के बारे में भी मुझे बताने लगता है. उसे व्हाॅट्सअप की महिमा के बारे में भी सब कुछ पता है.

इस निरक्षर युवक को ‘मोबाइल-इंटरनेट संगम’ ने दौड़ती-भागती आगे बढ़ती दुनिया से दो-हाथ करना सिखाया है. अक्षर ज्ञान उसे मोबाइल ने ही सिखाया. यानी मोबाइल ही उसका गुरु है.

पिछले महीने पूर्णिया से 30 किमी दूर भगैत सुनने एक गांव जाना हुआ. भगैत के मूलगैन (मूलगायक) अवध बिहारी जी की आवाज के जादू ने मन मोह लिया, अफसोस मैं रिकाॅर्ड नहीं कर सका. जाते वक्त मैंने अवध बिहारी जी से कहा कि क्या आपकी कोई तस्वीर मिल सकती है?

उनका जवाब मुझे काफी रोचक लगा. अवध बिहारी जी की उम्र 60 के आसपास होगी. गठीला बदन, स्वस्थ और तेजर्रार. उन्होंने मैथिली में कहा- ‘अहां क मोबाइल में व्हाॅट्सअप अछि कि? हमर मोबाइल से अहां क मोबाइल में फोटू पहुंच जाएत. हमर पोता क अबै छै इ सब.’ (आपके मोबाइल में व्हाॅट्सअप है क्या? मेरे मोबाइल से आपके मोबाइल में फोटो चला जायेगा. मेरे पोते को यह सब करने आता है.) मुझे अभी भी अवध बिहारी जी का कहने का वह अंदाज याद है. मोबाइल और इंटरनेट ने लोगों के भीतर विश्वास भी पैदा किया है.

यह सब लिखते हुए मुझे मैला आंचल में रेडियो का प्रसंग याद आ रहा है. रेडियो का प्रसंग उस मेरीगंज की कहानी है, जहां विज्ञान, संचार और तकनीक में भी किंवदंतियां और लोककथाएं जगह पा लेती हैं.

विज्ञान आधारित वस्तुएं यहीं आकर अभिशाप के बजाय समाज का एक जीता-जागता चरित्र बनने लग जाता है और हमारा उससे खास किस्म का लगाव भी. देखिये न, मोबाइल को इंटरनेट से जोड़ कर जब भी कुछ लिखता हूं, तो मन करता है कि यदि रेणु होते, तो उनसे विनती करता, ‘बाबा, मोबाइल युग का मैला आंचल लिखिये न!’

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