बेशक पाकिस्तान में आतंकी घटनाएं और उसमें जानो-माल का नुकसान रोजमर्रा की बातें हैं, परंतु बलूचिस्तान की राजधानी क्वेटा के एक सरकारी अस्पताल में हुए आत्मघाती विस्फोट को ऐसे हमलों की अगली कड़ी के रूप देखना इस घटना की भयावहता पर परदा डालना होगा.
पलक झपकते 60 से ज्यादा लोगों की जान लेनेवाले इस आतंकी विस्फोट की तुलना बस मार्च महीने में लाहौर के गुलशन इकबाल पार्क में हुए आत्मघाती विस्फोट से की जा सकती है, जिसमें 75 लोग मारे गये थे. दूसरे, आत्मघाती हमले के लिए अस्पताल जैसी जगह को चुना गया. बीमारों की जान लेने यह कोशिश अपनी नृशंसता में पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल पर हुए दिसंबर, 2014 के आतंकी हमले की याद दिलाती है.
तीसरी और पाकिस्तान में लोकतंत्र के भविष्य के संकेत के लिहाज से सबसे अहम बात यह है कि आतंकी मीडियाकर्मियों और वकीलों को निशाना बनाना चाहता था. अस्पताल में मीडियाकर्मी और वकील बलूचिस्तान बार एसोसिएशन के अध्यक्ष बिलाल अनवर कासी पर हुए आतंकी हमले से उपजे आक्रोश और विरोध-प्रदर्शन के सिलसिले में जुटे थे.
हाल के वर्षों में पाकिस्तान में मीडिया और अदालत एक हद तक मानवाधिकार तथा लोकतंत्र के पैरोकार बन कर उभरे हैं और इस हमले को मानवाधिकारों पर की गयी एक बड़ी चोट के रूप में देखा जाना चाहिए.
क्वेटा की घटना से झांकती भयावहता चाहे कितनी भी जाहिर क्यों न हो, पाकिस्तानी नेतृत्व की प्रतिक्रिया पहले की ही तरह अपनी जमीन पर एक संस्कृति की तरह पनपते आतंकवाद से इनकार करने और हर बुरी बात के लिए भारत को कोसने तथा जिम्मेवार ठहराने की है. बलूचिस्तान के मुख्यमंत्री सनाउल्लाह जहरी ने अपने गिरेबान में न झांकते हुए घटना के तुरंत बाद उसमें सीधे-सीधे भारत की साजिश सूंघ ली और कहा कि विस्फोट का जिम्मेवार भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ है. जहरी साहब अगर सच्चाई को सोचने की जहमत उठाते, तो उन्हें दिख जाता कि बलूचिस्तान पाकिस्तानी राष्ट्रीयता की सबसे ज्यादा दुखती हुई नस है.
प्राकृतिक गैस, कोयला, तांबा और सोना जैसे महत्वपूर्ण संसाधनों से भरा बलूचिस्तान अगर अलगाववादी रुझानों से ग्रस्त है, तो इसलिए कि सिंध और पंजाब के दबदबे वाली पाकिस्तानी हुकूमत ने कभी बलूची राष्ट्रीयता के दुख-दर्द को न तो अपना समझा और न ही अपनेपन का बरताव किया. बलोच राष्ट्रवादी लगातार कहते रहे हैं कि पाकिस्तान सरकार इस प्रांत को उसके जायज हक नहीं दे रही. बलोची राष्ट्रवादियों के एक धड़े के साथ पाकिस्तान सेना ने एक तरह से अघोषित युद्ध ही छेड़ रखा है और इनके आंदोलन पर काबू रखने के लिए पाकिस्तान अपनी शह में पलते तालिबानी आतंकी जमातों का भी इस्तेमाल करता रहा है.
खबरों के मुताबिक, जहरी साहब खुफिया एजेंसी रॉ के हाथ होने की बात पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से भी कहनेवाले हैं. ऐसे में उनकी प्रतिक्रिया के बारे में भी अभी से अनुमान लगाया जा सकता है.
नवाज को बलूचिस्तान में सेना के कदमों तले रौंदी जाती बलोच राष्ट्रीयता और वहां के आम जन का मानवाधिकार याद नहीं आयेगा. समाधान के तौर पर उन्हें फिर से याद आयेगी सेना, सेना की शह में पलनेवाली वे तालिबानी आतंकी जमातें, जिनका इस्तेमाल सीमा-पार भारत के कश्मीर में अलगाववाद की आग भड़काने के लिए और सीमा के भीतर बलूचिस्तान जैसे प्रांतों में निर्दोष लोगों की जान लेने में किया जाता है. दरअसल सेना, आइएसआइ, और मजहबी कट्टरता के पैरोकार जमातों के साये तले चलनेवाली पाकिस्तानी हुकूमत ने कभी आधिकारिक तौर पर आतंकवाद को लेकर स्पष्ट रुख अख्तियार नहीं किया.
पाकिस्तान का आतंकवाद से रिश्ता संकीर्ण स्वार्थों से तय होता है. जिन आतंकी ताकतों का इस्तेमाल पाकिस्तानी हुकूमत अपने घोषित-अघोषित दुश्मनों के खिलाफ कर पाता है, उन्हें वह ‘गुड टेररिस्ट’ की श्रेणी में रखता है और इन्हीं में से जो कोई गाहे-ब-गाहे भस्मासुर की तरह आचरण करने लगे, तो उसे ‘बैड टेररिस्ट’ करार देकर आतंकवाद के विरुद्ध वैश्विक लड़ाई में सहभागी होने का दम भरता है.
सोच के इसी दोहरेपन ने गृहमंत्री राजनाथ सिंह की सार्क देशों की बैठक में भागीदारी वाली पाकिस्तान यात्रा के वक्त नवाज शरीफ से कहलवाया कि पाकिस्तान कश्मीरी अलगाववादियों को नैतिक, कूटनीतिक और राजनीतिक समर्थन देते रहेगा. यह एक तरह से कश्मीर में पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद की खुलेआम पैरोकारी नहीं तो और क्या है?
भारत के विरुद्ध परमाणु युद्ध की धमकी देनेवाले हिज्बुल सरगना सैयद सलाहुदीन को शह कहां से मिल रही है? हाफिज सईद और मसूद अजहर जैसे आतंकियों को पनाह कौन दे रहा है? आतंक और आतंक को अंजाम देनेवाला पूरी मानवता के अपराधी हैं. पाकिस्तान को ऐसी हिंसा को समर्थन देने-बढ़ाने की अपनी राजनीति पर गंभीरता से आत्ममंथन करना चाहिए.
कूटनीतिक स्वार्थों से परे हट कर वैश्विक स्तर पर भी इस घातक समस्या के समाधान की ठोस पहलों की जरूरत है. आतंक पर राजनीति करनेवाले देशों को यह भी समझना होगा कि इसका भुक्तभोगी अंततः जनता ही है. क्वेटा जैसी घटनाएं दुनिया में कहीं भी हों, इसका शिकार बनने के लिए आम लोग ही अभिशप्त हैं. पाकिस्तान को आत्मसुधार पर ध्यान देना चाहिए. अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भी उस पर समुचित दबाव बनाना चाहिए. स्थिति अब हद से बाहर जा चुकी है.