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वेतन-वृद्धि के किंतु-परंतु

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पिछले दिसंबर में कहा था कि कर्मचारियों के वेतन-भत्तों में वृद्धि को बनाये रखने के लिए देश को एक से डेढ़ प्रतिशत की अतिरिक्त आर्थिक संवृद्धि की जरूरत है. दुनिया का आर्थिक विकास जब ठहरने लगा है, तब भारत की विकास दर में जुंबिश दिखाई पड़ रही है. ट्रिकल डाउन […]

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पिछले दिसंबर में कहा था कि कर्मचारियों के वेतन-भत्तों में वृद्धि को बनाये रखने के लिए देश को एक से डेढ़ प्रतिशत की अतिरिक्त आर्थिक संवृद्धि की जरूरत है. दुनिया का आर्थिक विकास जब ठहरने लगा है, तब भारत की विकास दर में जुंबिश दिखाई पड़ रही है. ट्रिकल डाउन के सिद्धांत को माननेवाले कहते हैं कि आर्थिक विकास होगा, तो ऊपर के लोग और ऊपर जायेंगे और उनसे नीचे वाले उनके बराबर आयेंगे. सबको लाभ पहुंचेगा. पर इस सिद्धांत के साथ तमाम तरह के किंतु-परंतु जुड़े हैं. इस वेतन वृद्धि से अर्थव्यवस्था पर तकरीबन एक फीसदी का बोझ बढ़ेगा और महंगाई में करीब डेढ़ फीसदी का इजाफा भी होगा. इसकी कीमत चुकायेगा असंगठित वर्ग. उसकी आय बढ़ाने के लिए भी कोई आयोग बनना चाहिए.
केंद्रीय कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि भारतीय मध्यवर्ग के लिए खुशखबरी लेकर आयी है. पैसा मिलने के पहले ही करीब एक करोड़ से ऊपर परिवारों ने खर्च की योजनाएं बना ली हैं. देश में तकरीबन 47 लाख केंद्रीय कर्मचारी और 52 लाख पेंशनभोगी हैं. तकरीबन एक लाख करोड़ रुपया बाजार में आयेगा, लेकिन साथ ही कई अंदेशे भी हैं. रिजर्व बैंक ने अप्रैल में कहा था कि इस साल वेतन आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद महंगाई में डेढ़ फीसदी का इजाफा हो जायेगा.
एक अंदाजा है कि इस साल हम आठ फीसदी की विकास दर हासिल कर लेंगे. मॉनसून ठीक रहा, तो खेती से जुड़े लोगों के पास भी पैसा आयेगा. केंद्रीय कर्मचारियों के साथ राज्य सरकारों के कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि का दबाव भी बढ़ेगा. बैंकों, सार्वजनिक उपक्रमों और स्थानीय निकायों में भी वेतन संशोधन की प्रक्रिया शुरू होगी. इसके समानांतर निजी क्षेत्र के उद्योगों में भी वेतन-भत्ते बढ़ेंगे. कुल मिला कर बीसेक करोड़ लोगों के जीवन में खुशियां आयेंगी. इनके बाद बीसेक करोड़ लोग और होंगे, जिनके जीवन पर इसका परोक्ष प्रभाव होगा. यह ट्रिकल डाउन तकरीबन सत्तर करोड़ से भी ज्यादा लोगों तक कैसे पहुंचेगा?
वेतन व बोनस में वृद्धि तभी हो सकती है, जब सरकार और निजी क्षेत्र के पास उसके लिए संसाधन हों. इसके लिए एक खास तरह के संतुलन की जरूरत होती है. हमारा समाज बुरी तरह असंतुलित है. जब एक तबके का भला होता है, तब देखना होगा कि दूसरे के लिए इस खुशखबरी में संकट का संदेश तो नहीं छिपा है. खाने-पीने और रोजमर्रा के सामान की कीमतों में वृद्धि गरीब तबके के लिए खराब संदेश ला सकती है. इसके विपरीत अतिरिक्त आमदनी का अंश नीचे तक पहुंचेगा, तो उसका बेहतर प्रभाव भी पड़ेगा. इस काम में सरकारों की भूमिका है.
सन 1947 में पहला वेतन आयोग जिस सिद्धांत से प्रेरित था, वह यह कि कर्मचारियों को न्यूनतम जीवन-यापन के लिए वेतन मिलना चाहिए. उस दौर में हम इससे आगे नहीं सोच सकते थे. 1959 में दूसरे वेतन आयोग की अवधारणा थी कि वेतन का रिश्ता बेहतर प्रशासनिक व्यवस्था से भी होना चाहिए. वह दौर था जब भारत सार्वजनिक उपक्रमों को खड़ा करने पर जोर दे रहा था. देश में निजी पूंजी की भारी कमी थी. सरकार की भूमिका बड़ी थी और सरकारी कर्मचारी की भी. 1973 में तीसरे वेतन आयोग ने सेवाओं को आकर्षक बनाने की बात कही. उस दौर में भी निजी क्षेत्र की सरकार से प्रतियोगिता नहीं थी.
1994 में गठित पांचवां वेतन आयोग देश में आर्थिक उदारीकरण के बाद का पहला आयोग था. उस दौर में पांच साल के भीतर कर्मचारियों के वेतन पर होनेवाला खर्च दोगुना हो गया. उसी दौर में कई राज्य सरकारों का जब सरकार को छोटा करने की मुहिम शुरू हुई, कंप्यूटरीकरण शुरू हुआ और निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने की बातें होने लगीं. पांचवें वेतन आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद पूरे देश में बोझ को महसूस किया गया. ऐसा मौका भी आया, जब एक दर्जन से ज्यादा राज्यों ने कहा कि हमारे पास वेतन देने के लिए पैसा नहीं है. वह दौर था जब नौजवान सरकारी नौकरियों के बजाय निजी क्षेत्र को पसंद करने लगे. आइटी सॉफ्टवेयर क्रांति ने इसमें बड़ी भूमिका अदा की.
विश्व बैंक ने पांचवें वेतन आयोग की सिफारिशों को सार्वजनिक वित्त-व्यवस्था के लिए धक्का बताया था. इसके बाद ही सरकारी कर्मचारियों की संख्या कम करने की मुहिम शुरू हुई, नयी भर्तियों पर रोक लगी. एक तरफ अर्थव्यवस्था ने तेजी पकड़ी, दूसरी तरफ, सरकारी सेवाओं पर शिकंजा कसने लगा. छठे वेतन आयोग की रपट तब आयी, जब साल 2008 की वैश्विक मंदी ने सिर उठाना शुरू किया था.
यह बात धीरे-धीरे सिर उठा रही है कि हमें हर दस साल में वेतन-संशोधन की जरूरत क्या है? खासतौर से तब, जबकि हम महंगाई से जोड़ कर वेतन देते हैं. सरकारी व्यवस्था में औसतन तीन फीसदी बेसिक और पांच फीसदी महंगाई भत्ते को मिला कर साल में तकरीबन आठ फीसदी का इजाफा होता है. यह वृद्धि निजी क्षेत्र की वेतन-वृद्धि से कम बैठती है. बावजूद इसके हाल के दिनों में सरकारी सेवाओं की ओर लोगों का रुझान बढ़ा है. साल 2008 की वैश्विक मंदी के बाद निजी क्षेत्र के बैंकों के बजाय सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की नौकरियों में जाने का क्रेज भी बढ़ा है.
वेतन संशोधन केवल पैसा बढ़ाने के लिए नहीं होता. वेतन आयोग की भूमिका प्रशासनिक कार्य-व्यवहार में सुधार के सुझाव देना भी है. सरकारी कामकाज में तकनीक के इस्तेमाल से क्षमता बढ़ायी जा सकती है. जिस काम को दस व्यक्ति करते थे, वह दो व्यक्ति कर सकते हैं. मतलब यह भी नहीं कि नौकरियों को कम किया जाये, पर कार्यक्षमता में सुधार होना ही चाहिए. केंद्रीय वेतनमान बढ़ने पर अब राज्य सरकारों पर दबाव बढ़ेगा. 14वें वित्त आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद से राज्यों के पास अब पहले से बेहतर संसाधन हैं. उनकी जिम्मेवारी भी बनती है कि वे अपनी आय बढ़ाने के तरीकों को भी खोजें. पर असली सवाल असंगठित क्षेत्र में काम करनेवालों से जुड़ा है, जिनके संरक्षण के बारे में विचार किया जाना चाहिए. वेतन-वृद्धि का बोझ गरीबों पर नहीं पड़ना चाहिए.
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
pjoshi23@gmail.com

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