14.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

विसंगति से संकट विश्वास का

अनिल रघुराज संपादक, अर्थकाम.काम जब इनसान नर्वस होता है, तो उसकी घिग्घी बंध जाती है. लेकिन सरकार जब नर्वस होती है, तो कुछ ज्यादा ही वाचाल हो जाती है. मोदी सरकार का फिलहाल यही हाल है. कार्यकाल के तीन साल बाकी हैं. लेकिन दो साल पूरा करने पर ऐसा डंका बजाया जा रहा है, मानो […]

अनिल रघुराज
संपादक, अर्थकाम.काम
जब इनसान नर्वस होता है, तो उसकी घिग्घी बंध जाती है. लेकिन सरकार जब नर्वस होती है, तो कुछ ज्यादा ही वाचाल हो जाती है. मोदी सरकार का फिलहाल यही हाल है. कार्यकाल के तीन साल बाकी हैं. लेकिन दो साल पूरा करने पर ऐसा डंका बजाया जा रहा है, मानो यज्ञ की पूर्णाहुति होनेवाली हो. हर सरकारी वेबसाइट खोलते ही विज्ञापन आ जाता है- मेरा देश बदल रहा है, आगे बढ़ रहा है. बताया जाता है कि पहले कैसा हाल था और अब कैसा हो गया है. लेकिन विसंगति देखिये कि राजनीति से लेकर अर्थनीति तक में प्रचार के पीछे की असलियत ऐसे बेपरदा हो रही है कि सरकार के प्रति विश्वास का भयंकर संकट पैदा हो जा रहा है.
कुछ दिन पहले ही खुलासा हुआ कि इशरत जहां मामले में गृह मंत्रालय का एक वर्तमान अधिकारी कैसे पूर्व अधिकारी व अहम गवाह को धमकी देकर सिखा रहा है कि उसे क्या पूछने पर क्या कहना है. उससे कुछ दिन पहले भाजपा सांसद हुकुम सिंह ने कैराना के 346 हिंदू परिवारों की सूची जारी की, जो मुसलमानों के आतंक की वजह से पलायन कर गये हैं. इसे भाजपा अध्यक्ष अमित शाह तक ने बड़ा मुद्दा बना कर उछाल दिया. बाद में सूची और कारण, दोनों ही झूठे निकले, तो हुकुम सिंह कहने लगे कि यह पलायन सांप्रदायिक आधार पर नहीं हुआ है. हालांकि, वित्त मंत्री अरुण जेटली अब भी कहे जा रहे हैं कि कैराना में अगर पलायन हुआ है, तो उसकी जांच होनी चाहिए. उन्हें कौन बताये कि कोई भी जांच उस विश्वास को वापस नहीं ला सकती, जो भाजपा और मोदी सरकार अपनी ऐसी हर हरकतों से खोती जा रही है.
अर्थनीति का मामला आम लोगों की नजरों से थोड़ा ओझल रहता है. लेकिन खास लोग वहां भी सच का पता लगाने के पीछे पड़े हुए हैं. हाल ही में मुंबई में आयोजित एक बड़ी अड्डेबाजी में यूनिलीवर, फिलिप्स, कैडबरी व डाबर जैसी कई कंपनियों में काम कर चुके दिग्गज कॉरपोरेट मैनेजर दीपक सेठी ने केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद से कहा कि वे मोदी सरकार से विकास व सुशासन दोनों ही मसलों पर निराश हैं और सरकार संकीर्ण रवैया अपना रही है. इसके जवाब में रविशंकर प्रसाद ने प्रधानमंत्री की अफगानिस्तान व ईरान यात्रा से लेकर सरदार पटेल और मौलाना आजाद को देर से भारत रत्न दिये जाने का जिक्र किया. लेकिन विकास और सुशासन का सवाल गोल कर गये.
असल में मंत्रियों और मंत्रालयों ने अर्धसत्य का विकट सिलसिला चला रखा है. मसलन, कृषि मंत्रालय का कहना है कि 2015-16 में देश में गेहूं का उत्पादन 940.4 लाख टन रहा है. लेकिन आटा मिल मालिकों और व्यापारियों का अनुमान है कि वास्तविक उत्पादन इससे 80 से 100 लाख टन कम है. उनके अनुमान को इससे भी बल मिलता है कि इस साल गेहूं की सरकारी खरीद पिछले साल से 50 लाख टन कम रही है और प्रमुख मंडियों में गेहूं के दाम पहले के मुकाबले 14-15 प्रतिशत ज्यादा हैं. ऊपर से आगामी 1 जुलाई को भारतीय खाद्य निगम के पास गेहूं का स्टॉक 280 से 290 लाख टन रहने का अनुमान है, जो आठ सालों का न्यूनतम स्तर है. नतीजा यह है कि बाजार में कृषि मंत्रालय के आंकड़ों को लेकर भारी अविश्वास है.
अभी तक देश में विदेशी निवेश के रिकॉर्ड स्तर तक पहुंचने पर बल्ले-बल्ले की जा रही थी. लेकिन रिजर्व बैंक के ताजा आंकड़ों से पता चला है कि बीते वित्त वर्ष 2015-16 के दौरान देश में कुल 31.9 अरब डॉलर का विदेशी निवेश आया है. यह पिछले साल 2014-15 में आये 73.5 अरब डॉलर के विदेशी निवेश से 56.59 प्रतिशत कम है. असल में अब प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) और विदेशी पोर्टफोलियो निवेश (एफपीआइ) को मिला कर देखा जाने लगा है. 2015-16 में देश में आया एफडीआइ जरूर 31.3 अरब डॉलर से बढ़ कर 36 अरब डॉलर हो गया है. लेकिन इसी दौरान एफपीआइ की मात्रा बढ़ने के बजाय 4.1 अरब डॉलर घट गयी. पिछले वित्त वर्ष में एफपीआइ 42.2 अरब डॉलर बढ़ा था. पोर्टफोलियो निवेश का घटना दिखाता है कि भारत के भविष्य के प्रति विदेशी निवेशकों का विश्वास काफी डगमगा चुका है.
इसकी वजह कहीं-न-कहीं देश के मूल आर्थिक विकास से संबंधित जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) के आंकड़े पर उठा अविश्वास है. हमने इससे पहले बताया था कि कैसे बीते वित्त वर्ष 2015-16 में जीडीपी के आंकड़ों में 2.15 लाख करोड़ रुपये की विसंगति दिखायी गयी है और इसे निकाल दें, तो जीडीपी की विकास दर 7.6 प्रतिशत के बजाय 5.71 प्रतिशत रह जाती है. इस पर हल्ला मचा तो सरकारी कृपा पर पल रहे अर्थशास्त्री और पूर्व नौकरशाह तक मैदान में उतार दिये गये. नीति आयोग के एक सदस्य ने कहा कि यह विसंगति मात्र 9,135 करोड़ रुपये की है. लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि ऐसा करते वक्त वे आम और कटहल की तुलना जैसी धृष्टता कर रहे हैं. उन्होंने जीडीपी की विसंगति का आंकड़ा वर्तमान मूल्यों का दिया है, जबकि मूल गणना 2011-12 के मूल्यों पर की गयी है. वहीं, वित्त मंत्रालय के एक पूर्व शीर्ष अधिकारी ने लेख लिखा कि सप्लाई और डिमांड साइड से गणना करने पर ऐसी विसंगति आती ही है और इसमें कुछ भी गलत नहीं है.
मामला चूंकि जीडीपी जैसे जटिल आर्थिक गणना का है. इसलिए आम लोगों को इस पर मगजमारी करने का तुक नहीं दिखता है. लेकिन, लोकतंत्र में हर विसंगति को कायदे से लोगों को सरकार की तरफ से समझाया जाना चाहिए. नहीं तो वे हर सरकारी नारे को अपने आसपास की हकीकत से जोड़ कर देखेंगे और हो सकता है कि संजीवनी लेकर आ रहे हनुमान को रावण की सेना का कोई राक्षस समझ लें.
लगता है अब सार्वजनिक जीवन में झूठ बोलने को दंडनीय अपराध घोषित कर देना चाहिए. सच मात्र किसी नैतिकता का मानदंड नहीं, बल्कि विकास की आवश्यक शर्त है. शुक्र पर यान भेजना हो, तो प्रक्षेपण में लाखवें अंश की गलती भी उसे शनि के कोप तक पहुंचा सकती है. सच की नींव पर ही विकास का भवन खड़ा किया जा सकता है, जबकि झूठ विकास का सब्जबाग दिखा कर लोगों को चकरघिन्नी ही खिला सकता है.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें