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जीने का मकसद

-हरिवंश- महाशिवरात्रि (2007) के दिन भाईश्री ने पुस्तक दी. पुस्तक का नाम है ‘साधना’ (द क्लासिक आफ इंडियन स्प्रिच्यूलिटी). लेखक हैं, रवींद्रनाथ टैगोर. पुस्तक छपी है, अमरीका के थ्री लीभस् प्रेस, डबल डे, न्यूयार्क से. 1913 में द मैकमिलन कंपनी ने इसे छापा था. पहली बार यह पुस्तक पेपरबैक में छप कर आयी है. कीमत […]

-हरिवंश-

महाशिवरात्रि (2007) के दिन भाईश्री ने पुस्तक दी. पुस्तक का नाम है ‘साधना’ (द क्लासिक आफ इंडियन स्प्रिच्यूलिटी). लेखक हैं, रवींद्रनाथ टैगोर. पुस्तक छपी है, अमरीका के थ्री लीभस् प्रेस, डबल डे, न्यूयार्क से. 1913 में द मैकमिलन कंपनी ने इसे छापा था. पहली बार यह पुस्तक पेपरबैक में छप कर आयी है. कीमत है 8.95 डालर.

भाईश्री योगी हैं. संत हैं. शायद यह पर्याप्त परिचय नहीं. वह मौलिक चिंतक हैं. कठोर साधना और तप से वे परिष्कृत हैं. पिता महान क्रांतिकारी थे. गांधी, विनोबा, जेपी, लोहिया के प्रिय. फिर राजनीति छोड़ आध्यात्म में गये. शिखर के योगी-तपस्वी. इस तरह भाईश्री को विरासत में तप, त्याग और आध्यात्म मिले. भाईश्री तेजस्वी डाक्टर थे. पर एमबीबीएस करने के बाद संसार छोड़ दिया. साधना चुना. संन्यस्त हो गये. पर वह आज के संदर्भ में संन्यासी भी नहीं हैं.

न वह कहीं सार्वजनिक होते हैं, न नाम से कुछ लिखना चाहते हैं. न वह मठ बसाना चाहते हैं, न कल्ट खड़ा करना चाहते हैं.पर चिंतन के स्तर पर दुनिया में चल रही नयी चीजों की उन्हें हर जानकारी है. उनके अपने मौलिक विचार हैं. स्पष्ट मत हैं. बांधनेवाला चुंबकीय व्यक्तित्व. ओजस्वी वाणी. झरता स्नेह. गुरुवर रवींद्रनाथ की यह पुस्तक उन्होंने दी थी. पढ़ना शुरू किया. गुरुदेव की साधना और गहराई की झलक मिली. बड़े विचारकों से गुरुदेव के बारे में सुनता था या गुरुदेव पर उनकी टिप्पणियां पढ़ता था. पर जीवन के बारे में गुरुवर की गहराई व दिव्य दृष्टि की झलक (कुल 129 पेजों की) इस पुस्तक से मिली. शायद आरंभिक पन्नों और पंक्तियों से ही.

हम जीते क्यों हैं? हम हैं, क्यों? जीवन का कोई मकसद है? आज भी पूरी दुनिया में इन सवालों को लेकर बहस है. आत्ममंथन है. नये विचार भी आ रहे हैं. गुरुदेव की इस पुस्तक में आठ अध्याय हैं. पहला अध्याय है ‘द रिलेशन आफ द इंडिविजूअल टू द यूनीवर्स’ (व्यक्ति का ब्रह्मांड से रिश्ता). इस अध्याय में है कि यह संसार या ब्रह्मांड जिन तत्वों से बना है, वही मुझ में हैं, आप में हैं, हम में हैं. वही सृष्टि में है. शायद इससे जुड़ना या जानना ही ज्ञान है. वह कहते हैं, ग्रीस की पुरानी सभ्यता शहरों की दीवारों -प्राचीरों और बाड़ों में घिर कर बढ़ी-पसरी और पनपी. आधुनिक सभ्यता की जननी यही है. इस तरह यह आधुनिक सभ्यता र्इंट और कंक्रीट के पालने पर खड़ी हुई और दुनिया में फैली. यही नागर सभ्यता है. अंगरेजी में इसे ही अरबनाइजेशन प्रोसेस (नगरीकरण की प्रक्रिया)कहते हैं. गुरुवर कहते हैं, इन दीवारों का मनुष्य की चेतना पर गहरा असर हुआ. इससे ही डिवाइड एंड रूल (बांटो और शासन करो) का दर्शन जन्मा. जीतो और उसे घेर लो. घेरे के बाहर दुश्मन. इस तरह देश-देश बंटते गये. ज्ञानों का बंटवारा हुआ. मनुष्य और प्रकृति भी दूर हो गये. इससे एक नया मानस बना,पनपा. जो भी हमारे नियंत्रण रेखा से बाहर है, वह पराया है. यह मानस ही विदेशी सभ्यता, संस्कृति, राष्ट्र, राज्य के चिंतन मूल में है.

गुरुदेव कहते हैं, पर भारत भिन्न रहा. यहां जंगलों में हमारी सभ्यताएं जन्मीं. जन्म-जगह (जंगल,वन) ने भारतीय सभ्यता, संस्कृति को एक अलग चेहरा, रूप और वातावरण दिया. प्रकृति के विराट स्वरुप के बीच विकास. प्रकृति के पालने में जीवन का उद्गम -अंत. प्रकृति से ही खाना, जीना और पहनना. इस माहौल से निकले इंसान का मकसद हथियाना नहीं था. लूटना नहीं था. इसलिए भारत में आक्रमणकारी कम पनपे. इस माहौल में पलने का वरदान था कि इंसान आत्मानुभूति तक पहुंचे. प्रकृति के साथ-साथ जीते हुए अपनी चेतना का उतना ही व्यापक और बड़ा विस्तार करे. इन्हीं जंगलों से भारतीय मनीषा को स्वर मिला. ब्रह्मांड एक है. जीव और जगत एक हैं. यहीं से ऋषियों के कंठ से स्वर फूटे कि वसुधा ही कुटुंब है (पूरी दुनिया एक ही परिवार है).

अयं निज परोवेति गणना लघुचेतसाम्

उदार चरितानांतु वसुधैव कुटुम्बकम्

अर्थात यह अपना है, वह पराया है, इसकी गणना छोटे बुद्धिवाले मनुष्य किया करते हैं. लेकिन जो उदार प्रवृति के लोग हैं, वे पृथ्वी पर रहनेवाले सभी लोगों को अपना परिवार मानते हुए पारिवारिक व्यवहार करते हैं.

कितना व्यापक सोच! उदार चरित्र और चेतना.

यह पढ़ते हुए डीएनए टेस्ट से पुष्ट यह बात याद आयी कि पूरी दुनिया के पूर्वज एक ही थे.अफ्रीका से निकले थे.गुरुदेव की यह कृति को पढ़ते हुए वर्षों पहले पढ़ी गयी थोरो की ‘वाल्डन’ पुस्तक याद आयी. वाल्डन अमरीका के एक जंगल में एक सरोवर है. वहीं महान चिंतक और विचारक थोरो की जमीन थी. थोरो ने शहरी जीवन छोड़ दिया. अपने हाथों एक झोपड़ी बनायी. वहीं रहने लगे. उनका मानना था, सीधा-सादा और सरल जीवन ही सर्वश्रेष्ठ है. दो साल तक थोरो मेहनत-मजदूरी कर जीते रहे. साथ-साथ प्रकृति का निरीक्षण भी करते रहे. पल-पल. इन्हीं दो वर्षों के अनुभवों के आधार पर उन्होंने बहुचर्चित वाल्डन पुस्तक लिखी.

प्रकृति की गोद के अनुभव, मनन-चिंतन और विचार से यह पुस्तक निकली. आकर्षक पुस्तक है. लगभग 150 साल पहले थोरो ने यह प्रयोग किया.

जीवन जीयें कैसे? शायद आज भी यह सबसे बड़ा सवाल मनुष्य के सामने है. सिर्फ बुद्ध ही इस प्रश्न से बेचैन नहीं हुए. अनेक हुए. पर सभी बुद्धत्व तक नहीं पहुंच पाये. क्योंकि जीवन समझने की जो आग है, उससे हम ऊर्जा नहीं लेते. शायद जीवन एक साधना है. पर आज भोग-भाग और स्पर्धा ने मनुष्य को मशीन बना दिया है. आज देश ने आजादी के बाद बड़ी प्रगति की है. पर जब गुलाम थे, तब अंधेरा पसरा था. पर ऐसे नेता, लेखक, चिंतक थे, जिनके अंतह में प्रकाश था. आज बाहर का अंधेरा घना हुआ है. भोग के कारण. पर अंदर का प्रकाश तो खत्म है. गुरुवर की तरह कोई रहा नहीं, जो अंदर की लौ जलाये. गुरुवर की रचनाओं में, विचारों में, कविताओं में, चित्रों में, संगीत में प्रकाश ढूंढ़ने की ही तो ललक है.

कोंकणी-मराठी के जानेमाने गांधीवादी विचारक रवींद्र केलकर की पंक्तियां याद आती हैं,

‘हमने जो पाया नहीं है ,वहीं अकसर हम पाना चाहते हैं. सत्ता, संपत्ति, ख्याति हमने पायी नहीं. हम सत्ता, संपत्ति, ख्याति पाना चाहते हैं.

और पाने पर सुखी होंगे?

पर जिन्होंने यह सब पाया है क्या वह सुखी हैं?’

यह सवाल महज रवींद्र केलकर जी का नहीं है, हम सब का है. रवींद्रजी ही एक जगह और कहते हैं-

‘डर से हमेशा आदमी एक सहारा ढूंढ़ता आया है. मामूली तिनके को भी पकड़ कर रहता है और अपने को सुरक्षित मानता है. पर यह तिनका भले ही नौकरी का हो, जमीन-जायदाद का हो या किसी धार्मिक कर्मकांड का हो. हर माह तनख्वाह मिलनी चाहिए. बीच-बीच में तरक्की मिलनी चाहिए. बुढ़ापे में पेंशन मिलनी चाहिए. पे, प्रमोशन और पेंशन के जाल में आदमी अपने को फंसा देता है और इनके सहारे पोजीशन, प्रेस्टीज और पावर – ये नये ‘पी’ पाता है. अक्सर हम सब अंदर से खाली और खोखले होते है. इसलिए अगर अपने को ये तीन ‘पी’ न मिले तो अपने को हारे हुए, ध्वस्त हुए मानते हैं.’

गांधी जी ने जीवन में साधन और साध्य का सवाल उठाया था. विकास या प्रगति, जीवन में साधन हैं या साध्य? अगर साधन हैं, तो साध्य क्या हैं? रवींद्र केलकर जी को ही कोट करें – ‘मनुष्य आज जैसा है, उससे अधिक संस्कारी बने, अच्छा बने, सुखी हो. अगर ये विकास या प्रगति के साध्य हों, तो शायद संसार सुंदर होगा.’ सत्यम शिवम सुंदरम की आभा में होगा.

गुरुदेव की इस पुस्तक के आरंभिक पन्नों को ही पढ़ते हुए न जाने कितने भाव उभरते हैं. उन्हीं की कल्पना थी. समाज ऐसा, जहां ‘चित जेथा भयशून्य’. क्या समृद्ध भारत, प्रगति करता भारत इसी रास्ते है? उनकी ही कविता की एक पंक्ति ‘मेरे देश में स्वच्छ विचारों का प्रवाह, अर्थशून्य आचारों के रेगिस्तान में जाकर सूख नहीं जाये, हे भगवान, स्वतंत्रता के स्वर्ग में मेरे देशवासी अपनी आंखें खोले’.

लोकसभा चुनाव सामने हैं. इन चुनावों से ही देश की नियति तय होती है. क्या इन चुनावों में जीवन के कुछ मौलिक सवाल भी उठेंगे कि हम कहां जा रहे हैं? क्यों जा रहे हैं? मैथिलीशरण गुप्त के विचार कि हम क्या थे? क्या हो गये? और क्या होंगे अभी? भले आजादी की लड़ाई के बाद के दौरान लिखी गयी हो, पर यह सवाल तो आज भी सबसे जरूरी है. देश का सपना क्या? मंजिल क्या? पहुंचना कहां?

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