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पापमुक्त होने का प्रमाणपत्र!
विष्णु नागर वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार राजस्थान के प्रतापगढ़ जिले में एक गौतमेश्वरमहादेव पापमोचन तीर्थ नामक मंदिर है, जहां आज के परम भौतिक और अति महंगाई वाले जमाने में भी मात्र 11 रुपये में ‘पापमुक्त’ होने का प्रमाणपत्र मिल जाता है. दुनियाभर में अपनी किस्म का एकदम अनोखा प्रमाणपत्र है और वह भी बहुत सस्ते […]
विष्णु नागर
वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार
राजस्थान के प्रतापगढ़ जिले में एक गौतमेश्वरमहादेव पापमोचन तीर्थ नामक मंदिर है, जहां आज के परम भौतिक और अति महंगाई वाले जमाने में भी मात्र 11 रुपये में ‘पापमुक्त’ होने का प्रमाणपत्र मिल जाता है. दुनियाभर में अपनी किस्म का एकदम अनोखा प्रमाणपत्र है और वह भी बहुत सस्ते में.
वैसे तो गंगा-यमुना-नर्मदा-कावेरी (और सरस्वती को भी शामिल मान लें, जिसके बारे में किंवदंती है कि वह लुप्त हो गयी है) में नहाने पर भी ‘पापमुक्त’ होने की बात कही-सुनी-पढ़ी-मानी जाती है, मगर इसका प्रमाणपत्र कोई जारी नहीं करता. ये नदियां खुद ऐसा कर नहीं सकतीं और इनके किनारे पूजापाठ आदि करवानेवाले पंडों की कल्पनाशक्ति अभी विकासशील अवस्था में ही है, विकसित नहीं हुई है, वरना वे प्रमाणपत्र वितरण कार्यक्रम आरंभ कर देते.
खबर यह भी है कि इस पापमोचन तीर्थमंदिर में मंदाकिनी कुंड में स्नान करके महादेवजी के दर्शन करनेवाले भक्तजनों की इस प्रमाणपत्र में अब कोई खास आस्था नहीं रह गयी है. यहां हर साल आठ दिन का गौतमेश्वर मेला लगता है, जिसमें आनेवालों की तादाद हर साल लगातार बढ़ रही है, इस बार मई में इसमें करीब दो लाख लोग आये, मगर सिर्फ तीन ने ही पापमुक्ति का प्रमाणपत्र लेना जरूरी समझा. यानी कुंड में स्नान करके लोग पापमुक्त हो जाते हैं, मगर इसका प्रमाणपत्र नहीं लेते. कहीं ऐसा तो नहीं कि ब्रिटेन पूंजी के साथ अपने यहां बढ़ रही नास्तिकता का निवेश भारत के इस आदिवासी क्षेत्र में करने लगा हो, क्योंकि आजकल हमारे यहां देश से ज्यादा विदेशी निवेश पर जोर है. एक कारण यह भी हो सकता है कि लोग जानते हैं कि मरने के बाद कोई बड़ा से बड़ा पुण्यात्मा भी अपने साथ ऐसा प्रमाणपत्र नहीं ले जा सकता, तो लोग सोचने लगे हों कि फिर इसे लेने का फायदा भी क्या?
एक कारण यह भी हो सकता है कि गौतम ऋषि के युग में तो एक पशु को मारने पर भी पाप लग जाता था और मंदाकिनी कुंड में स्नान करके पाप का निवारण हो जाता था मगर अब तो आदमी को मारना, यहां तक कि हजारों लोगों का नरसंहार करना तक पाप नहीं माना जाता, और जिसका भारी पुण्य भी इसी जन्म में मिल जाता है. ऐसे में लोगों को लगता होगा कि पशु-पक्षियों या कीड़े-मकोड़ों के गलती से मर जाने पर पापनाश का प्रमाणपत्र लेना बचकानापन है. इस पर 11 रुपये की मामूली राशि भी क्यों खर्च की जाये?
यह भी हो सकता है कि लोग सोचते हों कि आज के जमाने में जो प्रमाणपत्र महज 11 रुपये में मिल जाता है, उसकी वैल्यू कौन मानता है, जब तक कि वह लाखों में न आता हो. वैसे अगर भगवान तक इमेल या व्हाॅट्सएप्प की सुविधा विकसित हो चुकी होती, तो लोग बड़े शौक से ऐसा प्रमाणपत्र ले लेते, क्योंकि खुद के पहुंचने से पहले ही वह प्रमाणपत्र वहां पहुंच जाता और काम बन जाता.
इधर हिंदुत्व के इतने प्रचार-प्रसार के बावजूद हो सकता है कि हिंदुओं को लगता हो कि जब हमारे मुसलमान, इसाई, पारसी आदि भाई-बहन इसका लाभ नहीं ले सकते, तो हम यह प्रमाणपत्र खुद कैसे ले लें? यह तो स्वार्थीपन है और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के प्रतिकूल है. इससे वहां भी सांप्रदायिकता की भावना पनपेगी, जो यहां के लिए भले ही ठीक हो, मगर वहां के लिए तो बिल्कुल ठीक नहीं है, क्योंकि वहां तो हमें जन्मजन्मांतर तक साथ रहना है.
ऐसे भी सज्जन-दुर्जन होंगे, जो सोचते होंगे कि जिनका धर्म हमसे अलग है, उनका स्वर्ग-नरक भी हमसे अलग होगा. अतः हिंदूबहुल स्वर्ग-नरक में सब कुछ मैनेज कर लिया जायेगा. जो यहां हो सकता है, वहां क्यों नहीं हो सकता? वहां भी तो हमारे वे धर्म भाई-बहन रहते हैं, जो यहीं से होकर गये हैं.
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