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बड़े अच्छे लगते हैं मेहंदी रचते मर्द

नासिरुद्दीन वरिष्ठ पत्रकार क्या हमने कभी अपने घर में किसी भाई, पिता, पति या किसी और मर्द को बहन, बेटी, पत्नी या मां के हाथों में मेहंदी रचते देखा है? क्या शादी-ब्याह, ईद, करवा चौथ, तीजिया, जीतिया या ऐसे ही किसी मौके पर घर के मर्दों से मेहंदी लगवाती स्त्रियां देखी हैं? जी… मजाक नहीं! […]

नासिरुद्दीन
वरिष्ठ पत्रकार
क्या हमने कभी अपने घर में किसी भाई, पिता, पति या किसी और मर्द को बहन, बेटी, पत्नी या मां के हाथों में मेहंदी रचते देखा है? क्या शादी-ब्याह, ईद, करवा चौथ, तीजिया, जीतिया या ऐसे ही किसी मौके पर घर के मर्दों से मेहंदी लगवाती स्त्रियां देखी हैं? जी… मजाक नहीं! क्या वाकई देखा है?
हममें से ज्यादातर कहेंगे, यह सब लड़कियां करती हैं. मेहंदी लगाना और रचवाना उनका ही काम है. है न!
अब जरा घर से बाहर निकलते हैं. पटना के एक बड़े बाजार में लाइन से बैठे कुछ मर्द लड़कियों के हाथ पर कुछ रचने में जुटे हैं. गौर से देखने पर पता चलता है- अरे, ये तो मेहंदी रच रहे हैं. बहुत ध्यान से फूल, पत्ती, बेल बना रहे हैं. इस बाजार में यहां- वहां 40 से ज्यादा मर्द इस काम में जुटे दिख जाते हैं. हालांकि, ऐसा सिर्फ पटना में ही नहीं हो रहा. ऐसे मर्द अब हर बड़े शहर के बाजारों में खूब देखे जा सकते हैं.
हर काम अच्छा है. मेहंदी रचना तो एक कला है. इसे साधना पड़ता है. जिसने भी इस कला को साध लिया, वह यह काम कर सकता है. इसलिए, सवाल यह नहीं कि हम मर्द इसे क्यों कर रहे हैं. सवाल यह है कि सदियों से घरों में मेहंदी लगा रहीं लड़कियां और इस कला को पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ानेवाली हमारे घर की लड़कियां या महिलाएं बाजार में यह काम करते क्यों नहीं दिखती हैं?
हमारे समाज में काम का बंटवारा और दायरा तय है. घर के दायरे में होनेवाला काम लड़कियों के हैं. उन्हें चौखट के अंदर रह कर काम करना है. इसलिए वही काम जो घर की चारदीवारी के अंदर स्त्रियां बड़ी खूबसूरती से करती हैं, घर के बाहर निकलते ही हम मर्दों का हो जाता है. इसे एक और तरीके से यों कहा जा सकता है कि जैसे ही स्त्रियों द्वारा सदियों से सहेजे किसी हुनर को दुनिया को दिखाने का मौका आता है और उससे आमदनी दिखने लगती है, हम मर्द उस पर काबिज हो जाते हैं. यानी पैसे वाला काम हम मर्दों का हो जाता है.
हम अपने घर की ही लड़कियों को ऐसे आमदनी वाले काम में ‘बाहर’ आगे नहीं बढ़ाते. तब हमें अपने ‘खानदान की इज्जत’ और ‘मूंछ का ख्याल’ आने लगता है. इसीलिए, जो मर्द घर में चाय तक नहीं बनाते, वे होटलों में फूली-फूली रोटी सेंकते हैं और नामी बावर्ची हो जाते हैं. जो घरों में पानी तक खुद नहीं पीते, बाहर बड़े अदब से दूसरों को पानी पिलाते हैं.
सिलाई-कटाई घर के अंदर लड़कियों का काम माना जाता है, वही काम लड़कों को बड़ा टेलर मास्टर या डिजाइनर बना देता है. सड़क किनारे लगे ठेलों, खोमचों, ढाबों, बाजारों पर नजर डालें, तो साफ दिखता है कि ढेरों ऐसे काम, जो घरों में सलीके से लड़कियां करती आ रही हैं, बाजार में उन्हीं से मर्द अपनी आर्थिक हालत मजबूत कर रहे हैं. कमाल देखिए, घर में लड़कियों वाले काम बाजार में करने से हम मर्दों की इज्जत कतई नहीं जाती!
आंकड़े भी इस बात की तसदीक करते हैं कि आर्थिक गतिविधियों में स्त्री समुदाय की भागीदारी, मर्दों के मुकाबले कम है. साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, किसी तरह के काम में मर्दों की भागीदारी का दर लगभग 58.63 फीसदी है. दूसरी ओर, स्त्रियों के काम में भागीदारी का दर महज 29.25 फीसदी है. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आइएलओ) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारतीय श्रम बाजार में महिलाओं की भागीदारी 2004-05 में 37 फीसदी थी. यह 2009-10 में घट कर 29 फीसदी पर पहुंच गयी. इस रिपोर्ट में आइएलओ के पास दुनिया के 131 देशों के आंकड़े हैं. महिलाओं की काम में भागीदारी के लिहाज से भारत का स्थान नीचे से 11वें पायदान पर है. आइएलओ के एक अर्थशास्त्री की टिप्पणी है कि आर्थिक वृद्धि दर तेज होने के बावजूद स्त्रियों की श्रम में भागीदारी शहरी और ग्रामीण इलाकों में घटी है.
यह सोचनेवाली बात है कि एक तरफ लड़कियों की पढ़ाई में तेजी आयी है, तो वहीं दूसरी तरफ, महिलाओं के काम का हिस्सा बढ़ने के बजाय और घट ही रहा है. मुम‍किन है, सामाजिक समूहों की बढ़ती आर्थिक मजबूती महिलाओं को घरों के दायरे में ही ‘सम्मानित’ रखने पर खुद को इज्जतदार महसूस करती हो!
इसकी एक वजह तो यह है कि हमारा समाज मुंह अंधेरे उठ कर देर रात तक काम में जुटी रहनेवाली स्त्रियों के काम को ‘काम’ के दर्जे में नहीं रखता है. यही नहीं स्त्रियों के काम का बड़ा हिस्सा अवैतनिक भी है. यह उसकी जिम्मेवारी और स्त्री धर्म में शामिल है. श्रम में महिलाओं की भागीदारी कम होना न सिर्फ स्त्रियों के हक में बुरा है, बल्कि समाज और देश के हित में भी खराब है. एक अध्ययन कहता है कि अगर काम में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी, तो आर्थिक वृद्धि दर भी तेजी से बढ़ेगी.
इन सब बातों के साथ, एक बड़ा सवाल है कि जो लोग काम करने को तैयार हैं या काम करने लायक हैं, उनके लिए श्रम बाजार में ‘काम’ कहां है? अगर कहीं कुछ काम है या काम के अवसर आ रहे हैं, तो सामाजिक ढांचा उन्हें मर्दों को पहले लेने का अवसर दे रहा है. शहरों में महिलाओं की काम में भागीदारी पहले भी कम थी, लेकिन धीरे-धीरे गांवों में भी अब उनके लिए काम के मौके घट रहे हैं.
इसलिए, हम मर्द खूब काम करें. मेहंदी रचते मर्द भी बड़े अच्छे लगते हैं. मगर, कितना अच्छा हो, अगर हम ये सारे काम अपने घर के अंदर भी करें. यानी घर की लड़कियों को मेहंदी लगायें, रोटी सेकें, प्याज काटें, पानी पिलायें वगैरह. अगर हमें यह ज्यादा कठिन लग रहा हो, तो एक दूसरा उपाय भी है.
बाहर भी लड़कियों को ये सारे काम करने दें. उन्हें बाहर काम करने का बेहतर माहौल दें. मेहंदी लगाती या दूसरे काम करती लड़कियां और महिलाएं सिर्फ घरों में ही नहीं, बाजार में भी दिखें. वे भी अपने लिए कुछ पैसा हासिल करें. अपने पैरों पर खड़ी हों. अपना भविष्य खुद बनायें. अच्छा रहेगा न!

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