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जल-संसाधन प्रबंध व उपयोग

विभाष कृषि एवं आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ देश के अलग-अलग इलाकों में हर साल सूखा पड़ने के कारण अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान ठहरा हुआ है. इस प्राथमिक क्षेत्र में ठहराव के कारण पिछले कई बरसों से अर्थव्यवस्था पटरी पर नहीं आ पा रही है. एरिड और सेमी-एरिड तथा सिंचित क्षेत्र दोनों की समस्याएं अलग-अलग […]

विभाष
कृषि एवं आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ
देश के अलग-अलग इलाकों में हर साल सूखा पड़ने के कारण अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान ठहरा हुआ है. इस प्राथमिक क्षेत्र में ठहराव के कारण पिछले कई बरसों से अर्थव्यवस्था पटरी पर नहीं आ पा रही है. एरिड और सेमी-एरिड तथा सिंचित क्षेत्र दोनों की समस्याएं अलग-अलग हैं.
एरिड तथा सेमी-एरिड क्षेत्रों में जहां बारिश कम होती है, वहां की समस्या है कि कैसे जल का संचयन-संरक्षण किया जाये. लेकिन सिंचित क्षेत्रों की मुख्य समस्या है अंधाधुंध भू-जल का दोहन. शहरों की समस्याएं भी हैं, जहां जल का अंधाधुंध प्रयोग बरबाद करने के स्तर पर है. विभिन्न क्षेत्रों और वर्गों के बीच जल का वितरण असमान है. शहर की कॉलोनियों में पानी का इस्तेमाल बेरोकटोक होता है, जबकि स्लम क्षेत्रों में साफ पानी दुर्लभ है.
गांवों में सूखे से लड़ने के लिए सामुदायिक व्यवस्था हमेशा से कारगर रही है. नाबार्ड के आर्थिक विश्लेषण और अनुसंधान विभाग ने ‘हरित क्रांति के रेन शैडो में एक सामान्य कहानी’ शीर्षक से साल 2014 में एक निबंध प्रकाशित की थी.
यह गांवों में सामान्य संपत्ति (मोटे तौर पर सामुदायिक संपत्ति) अधिकारों पर सात राज्यों के 22 जिलों में 100 गांवों के 3,000 परिवारों के अध्ययन पर आधारित एक शोध पत्र है. ये गांव एरिड, सेमी-एरिड और सब-ह्यूमिड इलाकों में हैं. अध्ययन में पाया गया कि 7.30 प्रतिशत सीमांत, 9.60 प्रतिशत लघु तथा 9.70 प्रतिशत अन्य कृषक सिंचाई के सामुदायिक संसाधनों का उपयोग कर पाते हैं. भूमिहीनों के मामले में यह मात्र 0.70 प्रतिशत है.
समाज के विभिन्न वर्गों के मामले में सिंचाई के सामुदायिक संसाधनों का उपयोग इस प्रकार था- अनुसूचित जन-जाति 10.30 प्रतिशत, अनुसूचित जाति 1.90 प्रतिशत, अन्य पिछड़ी जातियां 5.60 प्रतिशत तथा सामान्य वर्ग 8.50 प्रतिशत. यानी विभिन्न भू-धारी तथा सामाजिक वर्ग के बीच सामुदायिक जल संसाधनों का उपयोग बराबर नहीं है. जिन गांवों में सामुदायिक संसाधनों के प्रबंध की यदि कोई व्यवस्था है, वहां अध्ययन के लिए चुने गये दस सालों में हर भू-धारी तथा सामाजिक वर्ग के लिए सिंचाई के संसाधनों की उपलब्धता तेजी से बढ़ी है.
मार्च में पीएचडी चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री द्वारा आयोजित नेशनल वाटर समिट 2016 को संबोधित करते हुए सेंट्रल वाटर कमीशन के चेयरमैन जीएस झा ने कहा कि सरकार नेशनल वाटर फ्रेमवर्क लॉ तैयार करने में तत्परता से जुटी है.
यह फ्रेमवर्क तैयार करते समय सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सामुदायिक सिंचाई के संसाधनों के प्रबंध की समुचित व्यवस्था हो, जिससे प्रत्येक भू-धारी तथा सामाजिक वर्ग को सामुदायिक सिंचाई के संसाधनों के उपयोग का बराबर का हक मिल सके. इस व्यवस्था में पंचायतों को केंद्रीय भूमिका दी जानी चाहिए. मॉनिटरिंग के लिए उपयुक्त बेंचमार्क भी तय किये जायें.
योगेंद्र के अलग ने अपनी पुस्तक ‘दी फ्यूचर ऑफ इंडियन एग्रीकल्चर’ में लिखा है कि नब्बे के दशक में खेती की भूमि में बढ़ोतरी रुक गयी, इस प्रकार खेती की जमीन पर अन्न उत्पादन का भार बढ़ता जा रहा है.
अब उत्पादन दो या अधिक फसलों या उपज में बढ़ोतरी द्वारा ही कृषि में ग्रोथ पायी जा सकती है. और इसमें सिंचाई की प्रमुख भूमिका होगी. अलग ने कहा है कि सीमित भूमिगत जल संसाधन को देखते हुए भूमि तथा जल संसाधन के प्रबंध को सुधारना पड़ेगा. वर्ष 1998-99 से 2002-03 तक के आंकड़ों को प्रस्तुत करते हुए उन्होंने दिखाया है कि शुद्ध सिंचित क्षेत्र इस अवधि में 56.51 मिलियन हेक्टेयर से घट कर 53.07 मिलियन हेक्टेयर पर आ गयी.
अलग ने लिखा है कि भूमिगत जल संसाधनों पर अत्यधिक भार के कारण खेती मुश्किल में है, खासकर उन सौ जिलों में जहां देश के 60 प्रतिशत से अधिक क्रिटिकल और भूमिगत जल के अत्यधिक दोहन के ब्लॉक अवस्थित हैं. और किसानों की आत्महत्याएं ज्यादातर इन्हीं जिलों में रिपोर्ट की गयी हैं. महाराष्ट्र के संबंध में लगातार यह चिंता जताई जा रही है कि जल संकट वाले जिलों में गन्ने की खेती ही संकट का मुख्य कारण है. उसी तरह पंजाब में धान के बाद गेहूं की खेती भूमिगत जल संसाधनों पर जबरदस्त दबाव डाल रहा है. समय की मांग है कि देश के हर हिस्से में सिंचाई के जल की उपलब्धता के आधार पर नया फसल चक्र तैयार किया जाये.
इसके लिए कृषि विद्यालय और विश्वविद्यालय को तुरंत अपने रिसर्च के साथ आगे आना पड़ेगा. इन संस्थाओं तथा सरकार के कृषि प्रसार विभागों को प्रमुख भूमिका निभानी पड़ेगी. बैंकों को इन नये कदमों को वित्त कार्यक्रम से समर्थन के लिए तैयार रहना पड़ेगा.
उपयुक्त फसल चक्र के साथ-साथ यह जरूरी है कि भूमिगत जल के रिचार्ज हेतु क्षेत्रवार परिस्थितियों के आधार पर एक कार्यक्रम बना कर लागू किया जाये. भूमिगत जल रिचार्ज बिना लोगों के सहयोग के संभव नहीं हो सकता. यहां कृषि वैज्ञानिकों और प्रसार विभाग को महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए अपने क्लास-लेबोरेटरी-कार्यालयों के खोल से बाहर आकर लोगों के बीच काम करना होगा. तालाब वाटर रिचार्ज के परिदृश्य में सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है.
गहरे तालाबों का निर्माण तो किया ही जाना चाहिए. साथ ही साथ किसानों को अपने खेतों पर गिरनेवाली बारिश की हर बूंद को बह जाने से रोकने का प्रयत्न करना होगा. बहता हुआ पानी अपने साथ उपजाऊ मिट्टी की ऊपरी सतह भी बहा ले जाता है. यही मिट्टी युक्त पानी नदियों को बरसात में गंदला कर देता है. किसी भी वाटर हार्वेस्टिंग और ग्राउंड वाटररिचार्ज की सफलता को मापने का पैमाना बड़ा सरल है. बरसात में नदियों का बहता पानी गंदला न हो.
ग्राउंड वाटर रिचार्ज में सबसे कमजोर कड़ी शहर हैं, जहां पानी का इस्तेमाल कम बरबादी ज्यादा होती है. इसके अतिरिक्त शहरों में जहां भी थोड़ी मिट्टी दिखती है, ‘शहरी’ उस पर सीमेंट पोत देता है. वाटर हार्वेस्टिंग शहरों में सिरे से नदारद है. अब जाकर भवनों-मकानों के नक्शे में वाटर हार्वेस्टिंग संरचना को आवश्यक बनाया गया है, लेकिन क्रियान्वयन नाकाफी है.
बरसात का पानी सबके लिए एक समान बरसता है. इसलिए बरसात के पानी को सबको कंधे से कंधा मिला कर बांधना और बराबर बांटना पड़ेगा, तभी इस संकट का मुकाबला हो सकेगा.

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