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कर्ज से उपजी चिंता
कर्ज की हालत तभी अच्छी कही जा सकती है, जब कर्ज की रकम सूद समेत वापस लौटे और यह तभी संभव है जब रकम का इस्तेमाल उत्पादक कार्यों के लिए हो. इस लिहाज से देखें तो नेशनल सैंपल सर्वे के नये आंकड़े जितने चौंकानेवाले हैं, उतने ही चिंताजनक भी. एक तो इन आंकड़ों से जाहिर […]
कर्ज की हालत तभी अच्छी कही जा सकती है, जब कर्ज की रकम सूद समेत वापस लौटे और यह तभी संभव है जब रकम का इस्तेमाल उत्पादक कार्यों के लिए हो. इस लिहाज से देखें तो नेशनल सैंपल सर्वे के नये आंकड़े जितने चौंकानेवाले हैं, उतने ही चिंताजनक भी.
एक तो इन आंकड़ों से जाहिर होता है कि बीते दशक में भारत के शहरी और गंवई, दोनों ही इलाकों में कर्जदार परिवारों की संख्या और उन पर चढ़े कर्ज का भार बढ़ा है, दूसरे ये आंकड़े यह भी बता रहे हैं कि चढ़े हुए कर्जभार और परिवारों के पास मौजूद संपदा के मोल में अंतर और ज्यादा बढ़ गया है.
परिवारों के पास मौजूद संपदा का मोल इतना नहीं है कि वे अपनी आर्थिक स्थिति को डावांडोल किये बगैर एकबारगी कर्ज अदा कर सकें. नये आंकड़ों के मुताबिक देश के ग्रामीण इलाके में साल 2002 में कर्जदार परिवारों की संख्या 27 प्रतिशत थी, जो अब बढ़ कर 31 प्रतिशत हो गयी है. इसी अवधि में शहरी इलाके में कर्जदार परिवारों की तादाद 18 प्रतिशत से बढ़ कर 22 प्रतिशत पर पहुंच गयी है. गंवई परिवारों पर कर्ज के बोझ में इजाफा तीन सौ प्रतिशत से ज्यादा का है, जबकि शहरी कर्जदार परिवारों पर बोझ में छह सौ फीसद से ज्यादा की वृद्धि हुई है. दूसरी ओर बीते दस सालों में लोगों ने जो संपदा जुटायी है, उसके मोल में वृद्धि इसकी तुलना में कम है.
यह आमदनी अठन्नी, खर्चा रुपैया जैसी हालत है, जिसे न तो किसी परिवार के लिए अच्छी कही जा सकती है और न ही किसी देश के लिए. परिवार को यह फिजूलखर्ची सांसत में डाल सकती है, जैसा कि दक्षिण के राज्यों में कर्ज के बोझ से परेशान किसानों की आत्महत्या की घटनाओं से जाहिर है. देश की अर्थव्यवस्था के लिए भी यह स्थिति चिंता पैदा करती है.
सात साल पहले अमेरिका में आयी मंदी बढ़ती कर्जदारियों की अदायगी न होने की ही देन थी. हाल में सरकार ने करोड़ों के कर्ज को बट्टा खाते में डाला है, जो एक तरह से इस बात का संकेत है कि अर्थव्यवस्था के भीतर कर्ज का प्रवाह बढ़ने के बावजूद देश उत्पादक परिसंपदाओं के अपेक्षित निर्माण में खास कामयाब नहीं हो पा रहा.
तेजी से बढ़ते मध्यवर्ग और उसके बीच बढ़ती अधिकाधिक उपभोग की लालसा के बीच कर्ज हासिल करने की आसान स्थितियां इसके लिए एक सीमा तक जिम्मेवार मानी जा सकती हैं, लेकिन इससे भी बड़ी वजह है उत्पादक परिसंपत्तियों का अपेक्षित निर्माण नहीं कर पाना. हर हालत में उपभोग और निवेश की जगह यदि बचत के हिसाब से उपभोग और निवेश की बात सोची जाये, तो शायद बढ़ती कर्जदारी के दुष्चक्र से मुक्ति का कोई रास्ता मिले.
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