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अभी हजारों मील का फासला बाकी है

।। रंजना कुमारी।। (महिला अधिकार कार्यकर्ता एवं डायरेक्टर, सीएसआर) गत वर्ष 16 दिसंबर को पूरे देश को दहला देनेवाली घटना पर उभरे जन-विरोध के बाद एक तरह की जागरुकता आयी. सरकार जागी और कानून में कुछ नयी चीजें जुड़ीं. इन सबके बीच सबसे अहम बात यह हुई कि लड़कियों का भय टूटा. इसी का परिणाम […]

।। रंजना कुमारी।।

(महिला अधिकार कार्यकर्ता एवं डायरेक्टर, सीएसआर)

गत वर्ष 16 दिसंबर को पूरे देश को दहला देनेवाली घटना पर उभरे जन-विरोध के बाद एक तरह की जागरुकता आयी. सरकार जागी और कानून में कुछ नयी चीजें जुड़ीं. इन सबके बीच सबसे अहम बात यह हुई कि लड़कियों का भय टूटा. इसी का परिणाम है कि तमाम ऐसे लोग, खास तौर पर अपर क्लास के लोग, जो इस तरह का कृत्य करके अपने को बचा ले जाते थे, हाल में कानून के शिकंजे में आये हैं. राजनीतिक दल भी अब महिला सुरक्षा के मामले को गंभीरता से ले रहे हैं. चुनावी घोषणा-पत्र में महिलाओं की सुरक्षा को पहला वादा बनाया है. यह एक बड़ा फर्क है, लेकिन विचारणीय है कि क्या कठोर कानून बनने से रेप की घटनाएं रुक गयी हैं? ऐसा नहीं हुआ है. हम जहां विफल हैं वह है सामाजिक ढांचा और मानसिकता. इसलिए सामाजिक तौर पर बदलाव की पहल जरूरी है.

सबसे बड़ी पहल परिवार के अंदर से होनी चाहिए. आज भी अधिकतर परिवारों में लड़का-लड़की के भेद से संस्कार बनाये जाते हैं और इस आधार पर सामाजीकरण होता है. इस भेद को सबसे पहले मिटाना होगा. बेटा-बेटी में संपत्ति का बराबर बंटवारा जरूरी है, जो कि कानून बनने के बाद भी नहीं हो रहा है. कुल मिला कर सत्ता, संतति और संपत्ति तीनों में जब तक स्त्री का बराबर का हक नहीं होगा, तब तक ठोस बदलाव नहीं होगा. महिलाएं जब तक पराश्रित रहेंगी, वो चाहे किसी भी तरीके से हो, तब तक बदलाव संभव नहीं. आज बड़े पैमाने पर महिलाएं नौकरी कर रही हैं, फिर भी पराश्रित हैं. जिंदगी के ज्यादातर जरूरी फैसले उनके हाथ में नहीं हैं. शादी, पढ़ाई, भविष्य, संपत्ति का फैसला उनके हाथ में नहीं है. इन सब चीजों के साथ एक महत्वपूर्ण बात है- महिला के शरीर के प्रति सम्मान. स्त्री सिर्फ भोग की वस्तु नहीं है, यह मानसिकता परिवार और समाज में अभी विकसित होनी बाकी है. इसके लिए प्राथमिक कक्षा स्तर से ही संवेदना और नैतिकता की शिक्षा को पाठय़क्रम में गंभीरता से शामिल किया जाना जरूरी है.

यौन उत्पीड़न के मामलों में सामाजिक स्तर पर ही नहीं, कानूनी स्तर पर भी संवेदनशीलता का गहरा अभाव है. बेशक हम धीरे-धीरे मजबूत कानून की ओर बढ़े हैं, लेकिन कानून अभी पूरी तरह से संवेदनशील नहीं है. जस्टिस वर्मा कमीशन की बहुत सारी सिफारिशों को सरकार ने माना ही नहीं. इसलिए जिस तरह का माहौल कानून द्वारा बनाया जाना चाहिए, उसमें हम न सक्षम हुए हैं, न ही सफल. बलात्कार से संबंधित कानून के प्रति परिवार, समाज, पुलिस और न्यायालय के अंदर जितनी संवेदनशीलता होनी चाहिए, उतनी दिखायी नहीं देती. इन सारी कमियों की वजह से कानून के एक अंग को आप कितना भी दुरुस्त कर लें, बाकी चीजें तो वैसे ही काम करेंगी.

सामाजिक सोच में बदलाव की पहल के साथ-साथ बहुत सी चीजें अभी कानून में भी शामिल होना बाकी हैं. मसलन, ‘रेप इन मैरिज’ को कानून में नहीं शामिल किया गया है. लड़के और लड़कियों के खुद से या जाति और धर्म तोड़ कर शादी करने के फैसले को स्वीकारा नहीं जाता. कानून में कमी के चलते बाल-विवाह नहीं रोके जा सके हैं. आज भी देश में 50 फीसदी शादियां बालावस्था में कर दी जाती हैं. बाल विवाह में हिंसा की संभावना बहुत ज्यादा बढ़ जाती है. कम उम्र में शादी के चलते लड़कियों को किसी तरह की जानकारी नहीं होती. ऐसे में आपसी रिश्ते और परिवार के अंदर जैसा भी व्यवहार उनके साथ होता है, उसे स्वीकार करने के लिए वे मजबूर होती हैं. परिवार में लड़का और लड़की के लालन-पालन का तरीका नहीं बदला है. घर में, बस में या सड़क पर, कहीं भी स्त्री सुरक्षित नहीं है. इसके पीछे पितृसत्तात्मक ढंग से हो रहा दिमागी गठन काम कर रहा होता है. यह सोच हावी होती है कि पुरुष के पास ज्यादा शक्ति है. वो कुछ भी करके बच जायेंगे. विचारणीय है कि यह सोच कहां से आती है. जाहिर है समाज से. दिमाग की इंजीनियरिंग को बदलने की सामाजिक प्रक्रिया कहीं भी नहीं चल रही है, जबकि इस पर काम करने की सबसे अधिक जरूरत है.

इस क्रम में महिला सुरक्षा को लेकर ग्रामीण इलाकों में भी अलग ढंग से काम करने की जरूरत है. गांव की महिलाओं की आवाज अब भी पूरी तरह से दबी हुई है. खासतौर पर यौन शोषण के मामले में. गांव में घटनेवाली ऐसी घटनाओं पर मुश्किल से तीन से चार प्रतिशत मामले ही सामने आ पाते हैं. वह भी अगर जातिगत या धर्मगत यौनहिंसा हो, तब. लेकिन रोजमर्रा के जीवन में घरों या खेत-खलिहानों में काम करते हुए औरतों के साथ यौन उत्पीड़न की जो घटनाएं होती हैं, उन पर सामाजिक शर्म और दबाव की वजह से चुप्पी हावी रहती है. न ही पीड़ित स्त्री और न ही उसका परिवार समाने आने की हिम्मत करता है. जरूरत इस बात की है कि हर जिले ही नहीं, कस्बे में भी महिला हिंसा रोकने के लिए एक केंद्र बने. इन केंद्रों में महिलाएं न सिर्फ अपने साथ होनेवाले अपराध के खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकें, बल्कि ये केंद्र गांव-गांव जाकर महिला हिंसा की रोकथाम और कानून के बारे में प्रचार-प्रसार करें. ऐसे में लोगों में एक तरह की चेतना विकसित होगी, लेकिन अब तक इस क्षेत्र में कोई पहल नहीं हुई है. आज भी गांव की स्त्री को शिकायत दर्ज कराने के लिए जिले के मुख्यालय में जाना पड़ता है. स्थानीय थाने तो उनकी शिकायत को लिखना भी नहीं चाहते. वे उल्टा औरत को ही दोष देते हैं. इसलिए शहरी और ग्रामीण व्यवस्था में महिला सुरक्षा को लेकर अभी हजारों मीलों का फासला बाकी है. जब तक यह फासला नहीं मिटेगा, तब तक गांव की महिलाओं की आवाज अनसुनी ही रह जायेगी, जबकि महिलाओं की एक बड़ी आबादी गांवों में रहती है.

निर्भया मामले में एक और अहम बात जो उभर कर सामने आयी है, वह नाबालिग अपराधी की सजा को लेकर है. 18 वर्ष से कम उम्र के लड़के आज समाज में जघन्य अपराध कर रहे हैं. ऐसे अपराधियों को सजा दिलाने के लिए वर्मा कमेटी में भी सिफारिश की गयी थी कि अगर 18 से कम उम्र का व्यक्ति किसी जघन्य अपराध को अंजाम देता है, तो ‘नेचर ऑफ क्राइम’ को देखते हुए, उसकी सुनवाई आइपीसी के तहत होनी चाहिए. यहां उम्र सीमा समाप्त करने से समस्या और बढ़ जायेगी. अगर 18 से कम उम्र का व्यक्ति जघन्य अपराध करता है, तो ऐसे अपराधी को छोड़े जाने के बजाय जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड उसे इंडियन पैनल कोड के तहत सुनवाई के लिए नॉर्मल कोर्ट में फार्वर्ड कर दे.

(प्रीति सिंह परिहार से बातचीत पर आधारित)

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