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साप्ताहिक बाजार का बदलता माहौल

क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार दिल्ली में बाजार की जिस दिन छुट्टी होती है, उस दिन सस्ता बाजार अपनी रौनक पर होता है. गांव-कसबों में लगनेवाले मेले, ठेलों, हाट की याद दिलाता है. छोले-भटूरे, चाट-पकौड़ी, पूड़ी-सब्जियां, फल, नमकीन, कपड़े, नकली जेवर, जूते-चप्पल, पर्स, मेकअप का सामान, इतनी चीजें कि गिनना मुश्किल. आपको घर चलाने के लिए […]

क्षमा शर्मा

वरिष्ठ पत्रकार

दिल्ली में बाजार की जिस दिन छुट्टी होती है, उस दिन सस्ता बाजार अपनी रौनक पर होता है. गांव-कसबों में लगनेवाले मेले, ठेलों, हाट की याद दिलाता है. छोले-भटूरे, चाट-पकौड़ी, पूड़ी-सब्जियां, फल, नमकीन, कपड़े, नकली जेवर, जूते-चप्पल, पर्स, मेकअप का सामान, इतनी चीजें कि गिनना मुश्किल. आपको घर चलाने के लिए हर जरूरी चीज यहां मिल सकती है. इन बाजारों में ज्यादातर सामान औरतों के लिए होता है और वे ही इसे खरीदती दिखाई देती हैं.

एक तरह से यह बाजार सप्ताह में एक बार घर से बाहर निकलने का मौका देता है. सहेलियों के साथ खरीदारी भी और निंदा रस भी, साथ ही मनपसंद चीज खाने का मौका भी.

यही नहीं, आज बाजार में औरत की उपस्थिति का मतलब यह भी तो है कि उसके पास पर्स है, पैसे हैं. खरीदने की शक्ति है, जो पहले नहीं थी. पर्स का होना औरत के सशक्तिकरण का प्रतीक भी है. वरना पहले तो बाजार-हाट जाने का काम भी आदमी ही किया करते थे. औरतें तो किसी उत्सव, त्योहार, मेले की बाट जोहती थीं, जब वे बाहर जा सकें. वहां भी खरीदारी आदमी के ही जिम्मे होती थी, क्योंकि पैसे का मालिक वही होता था. औरतों के पल्लू में तो दो-चार पैसे बंधे होते थे, जो उन्होंने रोज के खर्चें से बचाये होते थे.

बहुत सी औरतें मेला-हाट न जाने पर शिकायत भी करती थीं. आपने वह गाना तो सुना ही होगा- चंपा जाय चमेली उ जाय रही, मैं कैसे रह जाऊंगी, पांच आने की पाव जलेबी, बैठ सड़क पर खाऊंगी. लेकिन, आज बाजार में औरतों की उपस्थिति बताती है कि अब उन्हें वहां जाने क लिए किसी से शिकायत करने या किसी का इंतजार करने की जरूरत नहीं है.

सच तो यह है कि अगर ये बाजार न हों तो गरीब, निम्न मध्यवर्ग यहां तक कि मध्यवर्ग का घर भी न चले. लोगों को ये बाजार महंगाई से निपटने का एकमात्र साधन लगते हैं, क्योंकि हर चीज यहां दुकानों से सस्ती मिलती है. हालांकि, मुनाफा तो यहां के दुकानदार भी कमाते ही हैं, लेकिन आज भी बड़ी संख्या में गरीब लोग पांच-दस रुपये के मसाले खरीदते पाये जाते हैं, जो दुकानों में शायद ही संभव हो. स्माल इकाेनाॅमी का यह बाजार सही उदाहरण है.

बड़ी कंपनियां तो पांच रुपये तक क्या, दो रुपये के पैकेट में सामान बेच रही हैं, उसे इन बाजारों को चलानेवाले पहले से ही जानते हैं. इसीलिए ऐसे दृश्य आम हैं कि एक किलो सब्जी में कुछ आलू, कुछ प्याज, कुछ टमाटर, हरी मिर्च, छोटा गोभी का फूल, एक गाजर, कुछ धनिया मिल सकता है. शायद यही कारण है कि जिस दिन ये बाजार लगते हैं नियमित रूप से लगनेवाले सब्जियों और फलों के ठेलों पर बहुत कम बिक्री होती है. ये दुकानदार इन बाजारों और ग्राहकों को अपनी कम बिक्री के लिए जिम्मेवार ठहराते हैं और खलनायक की तरह से देखते हैं.

इन बाजारों का अगर अध्ययन किया जाये, तो इन बाजारों के द्वारा समर्थित गरीब इकोनाॅमी और महिला सशक्तीकरण के बहुत दिलचस्प तथ्य नजर आ सकते हैं. मगर सोशल सेक्टर और इकोनाॅमिक सेक्टर में काम करनेवालों की नजर या तो इन पर नहीं पड़ी है, या अभी तक उन्हें इनके महत्व का पता नहीं चला है.

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