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कांग्रेस को मोदी नहीं, महंगाई ने मारा

।। उर्मिलेश।।(वरिष्ठ टीवी पत्रकार) हिंदी पट्टी के चार राज्यों के जनादेश के बाद मुख्य विपक्षी भाजपा और सत्तारूढ़ यूपीए के नेता जीत-हार की तरह-तरह से व्याख्याएं कर रहे हैं. भाजपा चाहती है कि इस जीत का बड़ा श्रेय उसके प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी को मिले. कांग्रेस नेता हताश हैं. पराजयबोध से ग्रस्त यूपीए […]

।। उर्मिलेश।।
(वरिष्ठ टीवी पत्रकार)

हिंदी पट्टी के चार राज्यों के जनादेश के बाद मुख्य विपक्षी भाजपा और सत्तारूढ़ यूपीए के नेता जीत-हार की तरह-तरह से व्याख्याएं कर रहे हैं. भाजपा चाहती है कि इस जीत का बड़ा श्रेय उसके प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी को मिले. कांग्रेस नेता हताश हैं. पराजयबोध से ग्रस्त यूपीए के दिग्गज व राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के महत्वाकांक्षी अध्यक्ष शरद पवार ने कहा कि यह सब यूपीए के सबसे बड़े घटक कांग्रेस के कमजोर नेतृत्व के चलते हुआ. अब जनता कमजोर नेता पसंद नहीं करती. शायद, वह इशारा कर रहे थे कि भाजपा के ताकतवर नेता मोदी के मुकाबले कांग्रेस अब मनमोहन या राहुल गांधी के बजाय उन जैसे ‘मराठा-महाबली’ को आगे करे!

इस सिलसिले में उन्होंने श्रीमती इंदिरा गांधी का उदाहरण देते हुए कहा कि आज उनके जैसे नेतृत्व की जरूरत है. पता नहीं, पवार कैसे भूल गये कि इस देश की जनता तानाशाही थोपने की कोशिश कर रहीं इंदिरा गांधी को भी एक बार बुरी तरह खारिज कर चुकी है. इसलिए हार-जीत का मसला सिर्फ नेता के व्यक्तित्व से नहीं जुड़ा है, उससे ज्यादा यह उसकी पार्टी की नीतियों से जुड़ा है. चार राज्यों में कांग्रेस की हार किसी एक नेता की वजह से नहीं, पार्टी और उसकी अगुवाई वाली केंद्र सरकार की नीतियों के कारण हुई है. इसमें राज्यों की अच्छी-बुरी सरकारों का भी अवदान रहा. भाजपा दावा जो भी करे, उसे भी एहसास है कि इस चुनाव में मोदी से ज्यादा बड़ा मुद्दा महंगाई बना, जिसने कांग्रेस के पांव उखाड़ दिये.

दिल्ली और राजस्थान, दोनों के कांग्रेसी मुख्यमंत्री अपने-अपने सूबों में ताकतवर नेता के रूप में उभरे थे, पर वे अपनी सरकारें नहीं बचा सके. शीला दीक्षित तो अपनी सीट भी नहीं बचा सकीं. इसका बड़ा कारण बना महंगाई व भ्रष्टाचार. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के भाजपाई मुख्यमंत्रियों ने न सिर्फ अपनी सरकारें बचायीं, पार्टी की सीटों में भी इजाफा किया. वहां कांग्रेस राज्य सरकार के खिलाफ लोगों को लामबंद नहीं कर सकी. लोगों के जेहन में केंद्र सरकार की नाकामियां पहले से दर्ज थीं. उन्हें अपने प्रदेशों में पहले की कांग्रेस सरकारों का बुरा प्रदर्शन भी याद था. इसके अलावा मध्य प्रदेश में शिवराज चौहान ने जिस तरह कृषि क्षेत्र के विकास और खास किस्म की ‘सोशल इंजीनियरिंग’ पर जोर दिया, उसका असर देखा गया. कांग्रेस ने पुराने राजघरानों के या सवर्ण नेताओं को आगे रखा, तो भाजपा को अपने शिवराज पर भरोसा रहा. शिवराज को सूबे के 54 फीसदी पिछड़े वर्ग ने इस बार भी निराश नहीं किया. उधर, रमन सिंह के मुकाबले कांग्रेस के पास कोई भरोसेमंद चेहरा नहीं था. नीतिगत-निर्धनता भी थी. ऐसे में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की कामयाबी के पीछे अगर भाजपा सिर्फ ‘मोदी-लहर’ को वजह बताये तो कौन भरोसा करेगा? अगर ऐसी कोई लहर थी तो वह दिल्ली में क्यों नहीं काम कर सकी? ‘आप’ के अरविंद केजरीवाल की बिल्कुल नयी बनी गीली सी दीवार वह क्यों नहीं भेद सकी?

सच पूछिये तो चारों राज्यों के नतीजों के पीछे कुछ समान कारण हैं, तो कुछ अलग-अलग स्थानीय कारकों की भूमिका रही है, पर कांग्रेस के लिए हर जगह महंगाई सबसे मारक साबित हुई. दिल्ली व राजस्थान के मुख्यमंत्रियों को ‘दोहरी एंटी-इनकम्बेंसी’ का सामना करना पड़ा. दोनों के पास बेतहाशा बढ़ती महंगाई का जवाब नहीं था. दोनों के द्वारा आधे-अधूरे से लागू किये गये समाज कल्याण कार्यक्रमों को चुनावी एजेंडे के तौर पर काफी विलंब से सामने लाया गया.

यहां एक सवाल उठना स्वाभाविक है. कुछ माह पहले हुए तीन अन्य विधानसभा चुनावों- हिमाचल, उत्तराखंड और कर्नाटक- में कांग्रेस को सत्ता कैसे मिली? पहली बात तो यह है कि इन तीनों राज्यों में भाजपा सरकारें अलग-अलग कारणों से अलोकप्रिय हो गयी थीं. हिमाचल में प्रेम कुमार धूमल और अनुराग ठाकुर के आगे किसी की कोई हैसियत नहीं थी. कहा जाने लगा था कि शिमला में पिता-पुत्र की सरकार चलती है. कंपनियों को भू-आवंटन से लेकर ठेकों तक में घपले हुए, जिससे विपक्षी कांग्रेस को बल मिला. साथ ही वहां कांग्रेस के पास वीरभद्र सिंह जैसा अनुभवी और दमदार नेता था, जिसने धूमल के खिलाफ लगातार अभियान चलाया. उत्तराखंड में भाजपा के अंदर लगातार बवाल मचा रहा. भुवन चंद्र खंडूरी की निजी छवि भले अच्छी थी, पर उनकी सरकार ठीक से काम नहीं कर सकी. उनसे पहले के भाजपाई मुख्यमंत्री निशंक लगातार विवादों में घिरे रहे थे. कर्नाटक का हाल और बुरा था. जिस येदियुरप्पा ने दक्षिण में पहली बार भाजपा को सत्ता-शीर्ष पर पहुंचाया, वही बाद के दिनों में उसकी मुश्किलों का सबब बन गये. भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में घिरे मुख्यमंत्री को बदला गया, लेकिन तब तक वह सरकार का सत्यानाश कर चुके थे और पार्टी को भी बेदम बना चुके थे. फिर वहां, सिद्दारमैय्या के रूप में कांग्रेस के पास एक दमदार नेता भी था.

हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि तब और अब के बीच महंगाई का ग्राफ भी चढ़ा है. हाल के महीनों में रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीजों की कीमतों के साथ-साथ सार्वजनिक सेवाओं के किराये में भी बढ़ोत्तरी हुई. प्याज ने तो पहले के सारे रिकार्ड तोड़ दिये. लेकिन पिछले दिनों केंद्रीय नेताओं ने महंगाई पर जैसी दलीलें दीं, वह जले पर नमक छिड़कने वाली थीं. स्वयं शरद पवार कहते रहे कि प्याज के दाम में गिरावट के लिए कुछ सप्ताह और इंतजार करना पड़ेगा. प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री सहित बड़े कांग्रेसी नेताओं को कई बार कहते सुना गया कि विकास की प्रक्रिया में महंगाई बढ़ना स्वाभाविक है. यह एक वैश्विक परिघटना है. गरीब जनता के दर्द को बड़े नेताओं की इन दलीलों ने और बढ़ाया.

हाल के वर्षो में आम लोगों को अपने आसपास विकास की रोशनी नहीं दिखी है. अगर वह कहीं दिखती थी तो बड़े कॉरपोरेट घरानों, बड़े नेताओं और थैलीशाहों के इर्दगिर्द. कांग्रेस-नीत सरकार के विश्वबैंक-परस्त सिद्धांतकार लोगों को समझाते रहे कि ‘ट्रिकल डाउन थ्योरी’ के तहत ऊपर के वर्गो की समृद्धि का फायदा नीचे तक जरूर जायेगा, लेकिन नीचे सिर्फ गरीबी और बेरोजगारी का विस्तार होता रहा. मीडिया-विस्तार के आज के दौर में ऐसी खबरें घर-घर पहुंचती रहीं. इससे लोगों का न सिर्फ सूचना-संसार व्यापक हुआ, बल्कि उनकी लोकतांत्रिक चेतना का भी विस्तार हुआ. इसका ठोस उदाहरण दिल्ली का चुनाव रहा, जहां ‘आप’ ने कई क्षेत्रों में बिल्कुल साधारण पृष्ठभूमि के अनजान चेहरों को टिकट दिया और उनमें कइयों ने मंत्रियों और राजनीति के दिग्गजों को हरा दिया. यह इस चुनाव की सबसे चमत्कारिक घटना है. देखना है, इस परिघटना का विस्तार होता है या नहीं!

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