7.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

और मुश्किल हुई कांग्रेस की राह

।। पुष्पेश पंत।। (वरिष्ठ टिप्पणीकार) चार राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे देश के सामने हैं. अब लालबुझक्कड़ी और भविष्यवाणी का समय समाप्त हो गया है. नतीजों के बाद यह हिसाब-किताब लगाने से कुछ हासिल होनेवाला नहीं कि किसने क्या पाया या गंवाया. हां, इस बात की पड़ताल निश्चित रूप से जरूरी है कि इन […]

।। पुष्पेश पंत।।

(वरिष्ठ टिप्पणीकार)

चार राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे देश के सामने हैं. अब लालबुझक्कड़ी और भविष्यवाणी का समय समाप्त हो गया है. नतीजों के बाद यह हिसाब-किताब लगाने से कुछ हासिल होनेवाला नहीं कि किसने क्या पाया या गंवाया. हां, इस बात की पड़ताल निश्चित रूप से जरूरी है कि इन नतीजों का क्या प्रभाव देश की भावी राजनीति पर पड़ सकता है. खास कर 2014 के आम चुनाव किस हद तक उन प्रवृत्तियों से प्रभावित होंगे, जिन्होंने इन विधानसभा चुनावों में राजनीतिक दलों तथा प्रत्याशियों की हार-जीत तय की है.

घूम फिर कर राजनीतिक बहस हर बार नरेंद्र मोदी के जादू और राहुल गांधी के करिश्मे की तुलना पर अटक जाती रही है. मोदी तथा राहुल की तुलना करने से कांग्रेसी निरंतर बचते रहे हैं, क्योंकि इससे कांग्रेस के सबसे बड़े नेता और ‘देश के भविष्य की आशा’ के मिथकीय प्रभामंडल के फीका पड़ने का संकट पैदा होने की प्रबल संभावना थी. इसके लिए राहुल गांधी की छवि निखारनेवाले विशेषज्ञों को दोष देना जायज नहीं, क्योंकि अपने सलाहकार-प्रबंधक राहुल ने स्वयं ही चुने तथा नियुक्त किये हैं. जहां तक भावी राजनीति में नेहरू-गांधी परिवार के रुतबे और असर का सवाल है, उसमें भारी गिरावट विधानसभा चुनाव अभियान के दौरान ही आ चुकी है. इसकी भरपाई अब मुश्किल लगती है. राहुल गांधी पहले तो बांहें चढ़ाते जोर से दहाड़ते दंगल में उतरते हैं, लेकिन जैसे ही सामने खड़े पहलवान को खम ठोंकते देखते हैं, तो पीठ पलटते देर नहीं लगाते.

पलक झपकते अचानक गायब हो जाते हैं- एकांत में आत्मचिंतन-मनन के लिए, ताकि अगली बार अकस्मात प्रकट हों बाजी पलटने (गेम चेजिंग) के लिए. भये प्रकट कृपाला दीनदयाला वाला यह मंचन इतनी बार हो चुका है कि उसकी विश्वसनीयता बुरी तरह नष्ट हो गयी है. चारों राज्यों में विधानसभा चुनावों के लिए हुए मतदान के बहुत पहले ही राहुल की चुनावी रैलियों में भीड़ छंटने लगी थी. दिल्ली में तो शीलाजी के चिरौरी करने से भी श्रोता रुके नहीं. यह सब जान गये हैं कि इस अवतार के दर्शन मात्र से ‘पाप नाशनम्’ नहीं होनेवाला. अपनी जिंदगी के दुख-दर्द दूर करने के लिए दूसरी तरफ देखना ही आम आदमी को समझदारी लगने लगा है. आरोपित करिश्मा का जादू कभी जगाया ही नहीं जा सका- बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब को राहुल के मोर्चा संभालने के बाद कांग्रेस गंवा चुकी है. मुखर एवं चाटुकार दरबारी कांग्रेसियों समेत किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि राजस्थान, दिल्ली, मध्य प्रदेश या छत्तीसगढ़ में वह भाजपा को हरा सकते हैं. जिसे कभी ब्रrास्त्र समझा जाता था, वह अब सिली फुलझड़ी भी नहीं लगता.

कांग्रेस की विफलता के कारण ढूंढ़ने के लिए दूर जाने या देर तक मशक्कत करने की जहमत नहीं उठानी पड़ती. संगठन का अभाव, वंशवादी व्यक्तिपूजक मानसिकता से ग्रस्त दरबारी चाटुकारों की भीड़ तथा दैत्याकार भ्रष्टाचार के आरोपों के अलावा संवैधानिक संस्थाओं एवं संसदीय परंपराओं को ध्वस्त करने की मनोवृत्ति के कारण कांग्रेस पार्टी जनता की नजरों में गिरी है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हों या वित्तमंत्री चिदंबरम, इनकी बुद्धिमत्ता से कांग्रेसी इतनी बुरी तरह अभिभूत हैं कि किसी भी आलोचक को मतिमंद या देशद्रोही करार देने में देर नहीं करते. महंगाई पर काबू पाने में इन महारथियों की लाचारी ने इन्हें हास्यास्पद बना दिया है. धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अल्पसंख्यक तुष्टीकरण और प्रतिरक्षा के संदर्भ में संवेदनशीलता के बहाने गोपनीयता का कवच इस्तेमाल कर यूपीए अपनी लाचारी छुपाने में असमर्थ रही है.

अंत में कांग्रेस के जनाधार रहित मदांध नेताओं के अहंकार का जिक्र करना भी जरूरी है. वास्तव में दिल्ली में शीला दीक्षित तथा राजस्थान में अशोक गहलोत को उनके राज्य के मतदाताओं ने कांग्रेस आलाकमान के कारनामों के लिए सजा दी है. निश्चय ही आगामी लोकसभा चुनावों के लिहाज से कांग्रेस के लिए यह शुभ संकेत नहीं है. लगातार हार के बाद पेशेवर कार्यकर्ता का मनोबल भी टूटने लगता है. निर्जीव संगठन में फिर से जान डालना असंभव होता जाता है. उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ हो, उत्तराखंड अथवा गुजरात या फिर आंध्र प्रदेश, कहीं भी कांग्रेस यह कहने की स्थिति में नहीं है कि राहुल या सोनिया गांधी ने अपनी तदबीर से उसकी बिगड़ी हुई तकदीर बना ली है. सिर्फ किस्मत पर भरोसा करके कब तक कोई दावं लगाया जा सकता है? पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, जम्मू-कश्मीर राज्य में तो इस पौराणिक दल का कोई नामलेवा भी नहीं नजर आता. ओड़िशा में बीजू पटनायक के मुकाबले किसी कांग्रेसी विकल्प की कल्पना करना भी कठिन है. आंध्र प्रदेश में तेलंगाना के गठन से कांग्रेस खुद अपने पैर में कुल्हाड़ा मार चुकी है. यहां भी राहुल या सोनिया गांधी का नेतृत्व कामयाब नहीं रहा. सार्थक नेतृत्व के अभाव में ही यह संकट विस्फोटक बना.

इन चुनावों में भाजपा के अच्छे प्रदर्शन का श्रेय नरेंद्र मोदी को ही दिया जाना चाहिए. जैसे-जैसे कांग्रेस ने उनका राक्षसीकरण सांप्रदायिक फासीवादी तानाशाह के रूप में किया, उनके समर्थकों के लिए उनके ताकतवर नेता और सक्षम निर्णायक छवि का प्रचार सहज बनता गया. खुद कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता तथा जनतांत्रिक संस्कार के बारे में सवाल पूछे जाने लगे. मगर इसके साथ-साथ यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि यदि भाजपा अपने नेता की छवि को विश्वसनीय बनाने में कामयाब रही है, तो इस दल के संगठन ने भी कम महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभायी. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह तथा अन्य नेता अंतत: एकजुट होकर खड़े दिखायी दिये. व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को भड़का कर उनमें फूट डालने की साजिश सफल नहीं हो सकी. भाजपा की सबसे बड़ी पूंजी नरेंद्र मोदी के अलावा ईमानदार छविवाले मुख्यमंत्रियों शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह, मनोहर र्पीकर के शासन का रिकॉर्ड साबित हुई. भाजपा को सांप्रदायिक दंगाइयों के रूप में बदनाम करने की रणनीति की विफलता का कारण कांग्रेस शासित राजस्थान तथा सपा के राज वाले उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक दंगों का विस्फोट भी था.

घायल कांग्रेस छत्तीसगढ़ के नतीजों से अपने जख्मों पर थोड़ा मलहम भले ही लगा ले, ज्यादा खुश नहीं हो सकती. राज्य में चाहे जिस पार्टी की सरकार बने, नक्सली हिंसा और प्रदेश की खनिज संपदा का कॉरपोरेट घरानों द्वारा दोहन, जिसने राज्य में सामाजिक विषमता को विस्फोटक बनाया है, ऐसी चुनौतियां हैं, जिनका सफलता से सामना करना नयी सरकार के लिए आसान नहीं होगा.

अपने दस साल के कामकाज को दरकिनार कर कांग्रेस निरंतर दस-बारह साल पहले की नाकामियों और दुखद घटनाओं की याद दिलाने में ही व्यस्त रही. निरंतर अश्रव्य, अदृश्य रहनेवाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने पद की गरिमा का क्षय करने के साथ-साथ पार्टी की चुनावी उम्मीदों पर भी पानी फेर दिया है. विश्वविख्यात अर्थशास्त्री की आर्थिक नीतियों की विफलता से खिन्न कॉरपोरेट जगत ने अपना अविश्वास यूपीए सरकार में साल भर पहले ही कर दिया था. मोदी के महिमामंडन में इस ताकतवर तबके का योगदान कमतर नहीं आंका जाना चाहिए.

कुल मिला कर इन विधानसभा चुनावों के प्रचार अभियान के दौरान जो बात मजाक में कही जाती थी, इस घड़ी सटीक और सच लगने लगी है- मोदी और भाजपा की जीत को सुनिश्चित करने का काम संयुक्त संघ परिवार ने नहीं, बल्कि विभाजित कांग्रेसी कुनबे ने किया.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें