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राजनीति के बदलते व्याकरण का प्रमाण!

आजादी के बाद भारतीय राजनीति ने अपने लिए एक खास व्याकरण गढ़ा. कुछ अपवादों और विचलनों को छोड़ दें, तो राजनीति लगातार इसी व्याकरण पर चलती रही है. इसी से व्याख्यायित होती रही है. हर पांच साल के बाद होनेवाले चुनाव सत्ता की चाबी भले एक से दूसरे हाथों में सौंपते रहे हों, लेकिन राजनीति […]

आजादी के बाद भारतीय राजनीति ने अपने लिए एक खास व्याकरण गढ़ा. कुछ अपवादों और विचलनों को छोड़ दें, तो राजनीति लगातार इसी व्याकरण पर चलती रही है. इसी से व्याख्यायित होती रही है. हर पांच साल के बाद होनेवाले चुनाव सत्ता की चाबी भले एक से दूसरे हाथों में सौंपते रहे हों, लेकिन राजनीति जस-की-तस रही है.

शायद यही वजह है कि आज भी हमें फैज अहमद फैज की यह नज्म प्रासंगिक लगती है कि इंतजार था जिसका ये वो सहर (सुबह) तो नहीं. हालांकि राजनीति की एक नयी सुबह भले दूर हो, लेकिन चार राज्यों के चुनावी नतीजे इसकी उम्मीद जगा रहे हैं. इसका सबसे साफ नजारा देश की राजधानी दिल्ली में देखा जा सकता है. एक साल पहले जन्मी आम आदमी पार्टी (आप) का दिल्ली विधानसभा चुनावों में जोरदार प्रदर्शन भारतीय राजनीति की वर्णमाला में कुछ नये अक्षर जोड़ रहा है. अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आप के इस प्रदर्शन को सिर्फ कांग्रेस के खिलाफ लहर के परिणाम या प्रमाण के तौर पर व्याख्यायित नहीं किया जा सकता.

दरअसल, आम आदमी पार्टी ने परंपरागत राजनीति की मान्यताओं और सोच को सिर के बल उलटा खड़ा कर दिया है. और बात सिर्फ आप की ही क्यों की जाये? जिस तरह से बिना किसी शोर-शराबे के विकास कार्यो को लोगों तक पहुंचाने की कोशिश में लगे साफ-सुथरी छविवाले शिवराज सिंह चौहान ने मध्य प्रदेश में लगातार तीसरी बार भाजपा को जीत दिलायी है, उसे भी राजनीतिक मुहावरे में आ रहे बदलाव का सूचक माना जा सकता है. शिवराज सिंह की यह उपलब्धि किसी से कमतर नहीं है. यह इस कारण भी सराहनीय है, क्योंकि उन्होंने अपने प्रदर्शन से बीमारू राज्यों में शामिल मध्य प्रदेश को प्रगति का यकीन दिलाया है.

रमन सिंह के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ में भाजपा का प्रदर्शन भी विकास के मुद्दे के केंद्रीय होकर उभरने की गवाही दे रहा है. इन चार राज्यों के चुनावों को आगामी आम चुनाव के सेमीफाइनल के तौर पर देखना गलत नहीं होगा, लेकिन ऐसा करते वक्त अपने-अपने राज्यों में राजनीति के परंपरागत मुहावरे को तोड़नेवाले चेहरों की उपलब्धियों को नहीं भुलाना चाहिए, जिन्हें किसी भी पैमाने पर ऐतिहासिक के सिवा कुछ और नहीं कहा जा सकता.

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