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नाकाम उम्मीदों का यह दौर..

।। चंदन श्रीवास्तव।। (एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस) ‘वे अपने धन, प्रभाव और विशेषाधिकार की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं. इसके उलट मैं सिर्फ अपनी ईमानदारी और इस अधिकार को बचाने के लिए लड़ रही हूं कि मेरा शरीर सिर्फ मेरा है, यह मुझे नौकरी पर रखनेवाले के हाथ का खिलौना नहीं है.’- यह वाक्य तहलका […]

।। चंदन श्रीवास्तव।।

(एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस)

‘वे अपने धन, प्रभाव और विशेषाधिकार की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं. इसके उलट मैं सिर्फ अपनी ईमानदारी और इस अधिकार को बचाने के लिए लड़ रही हूं कि मेरा शरीर सिर्फ मेरा है, यह मुझे नौकरी पर रखनेवाले के हाथ का खिलौना नहीं है.’- यह वाक्य तहलका पत्रिका के संस्थापक-संपादक तरुण तेजपाल पर बलात्कार का आरोप लगानेवाली महिला पत्रकार की एक सार्वजनिक चिट्ठी का है. इस वाक्य के आधार पर पीड़िता के साथ हुए अन्याय की एक विशेष तसवीर बनती है. अन्याय की इस तसवीर को देखें, तो मन में मोटा-मोटी धारणा उठेगी कि सार्वजनिक जिम्मेदारी के पद पर बैठे एक व्यक्ति ने अपनी ताकत का दुरुपयोग किया. क्या तेजपाल प्रकरण में सच्चाई वाकई उतनी ही है, जितनी कि इस वाक्य से जाहिर होती है? बात को तनिक घुमा कर कहें, तो क्या इस लड़ाई को बस इतना कह कर समेटा जा सकता है कि यह उस ताकत के दुरुपयोग की कहानी है, जो सच को उजागर करने से हासिल होती है और जिसे तहलका के संस्थापक के तौर पर अपने स्टिंग-ऑपरेशनों के जरिये तरुण तेजपाल ने बड़े जतन से कमाया था?

अगर तरुण तेजपाल की पत्रकार-बिरादरी के संगी-साथियों की प्रतिक्रियाओं को देखें, तो इस प्रश्न का उत्तर एक निश्चित ‘हां’ के रूप में उभरता है. कल को तेजपाल के उत्थान को अपनी हैरतभरी आंखों से देखनेवाले उनके साथी आज के दिन उनके प्रभाव-पतन की व्याख्या ‘ताकत के दुरुपयोग’ के मुहावरे में कर रहे हैं. पच्चीस साल पहले तरुण तेजपाल ‘इंडिया टुडे’ के फीचर संपादक हुआ करते थे और आज इस पत्रिका के एडिटर-इन-चीफ अरुण पुरी तेजपाल के पतन की व्याख्या में कह रहे हैं- ‘मैंने देखा है कि बहुत से प्रतिभाशाली लोगों में खुद को भगवान समझ बैठने की एक मनोग्रंथि होती है. वे सफलता के बड़े ऊंचे सोपान पर जा चढ़ते हैं और फिर एक ऐसी दुनिया में रहने लगते हैं, जो उनकी अपनी बनायी होती है, और मान बैठते हैं कि सामाजिक बरताव के सामान्य नियम या फिर देश का कानून उन पर लागू नहीं होता.’

अरुण पुरी ने जिस बात को तेजपाल की मनोग्रंथि के रूप में लक्ष्य किया है, उसके उभरने के कारण को स्पष्ट किया है तेजपाल के मित्र और सहयोगी महेश पेरी ने. आउटलुक के पूर्व प्रकाशक महेश पेरी फिलहाल पाथफाइंडर मीडिया नामक संस्था चलाते हैं. इंडिया टुडे पत्रिका के बाद तरुण तेजपाल तकरीबन छह साल तक आउटलुक पत्रिका में प्रबंध संपादक के पद पर थे. महेश पेरी को लगता है कि तरुण तेजपाल ने सफलता के सोपान चढ़ते हुए एक ऐसा व्यक्तित्व ओढ़ लिया, जो उनके मूल स्वभाव से मेल नहीं खाता. उन्होंने मिशनरी पत्रकारिता की अपनी मुहिम को जारी रखने के लिए एक संत का चोला ओढ़ा, जबकि वे एक सामान्य आदमी थे, जो अपनी खूबियों, खामियों और ख्वाहिशों की कीमियागिरी से बना एक पुतला होता है और ठीक इसी कारण ‘कल अगर लोगों ने तेजपाल को भगवान माना और हम लोगों को ऐसा करने से नहीं रोक सके, तो हम आज भी नहीं रोक सकते, अगर लोग उन्हें शैतान मान बैठें.’ महेश पेरी को लगता है अपने स्वभाव से बेमेल व्यक्तित्व ओढ़ने के कारण तरुण तेजपाल के हाथों ‘एक पत्रकार, एक संपादक और एक व्यक्ति रूप में ताकत का दुरुपयोग’ हुआ.

ताकत के दुरुपयोग की अनगिनत कथाएं हैं. क्या यह मान कर संतोष कर लिया जाये कि एक सार्वजनिक व्यक्तित्व के रूप में तरुण तेजपाल के पतन से ताकत के दुरुपयोग की सत्यकथाओं में एक और कथा बढ़ गयी? और, अदालत अगर दोषी की पहचान करके सजा सुना देती है, तो फिर क्या यह मान लेना ठीक होगा कि पीड़ित को इंसाफ मिल गया, सो सार्वजनिक जीवन की मर्यादाएं एक बार फिर से बहाल हो गयीं? नहीं, तेजपाल के पतन की कथा सिर्फ ताकत के दुरुपयोग की कथा नहीं है और तेजपाल-प्रकरण में दोष की ठीक-ठीक पहचान करके कानून की अदालत सजा सुना दे, तो भी नहीं माना जा सकता कि सार्वजनिक जीवन की मर्यादाएं फिर से बहाल हो गयीं. ऐसा मानने के दो मजबूत कारण हैं. एक कारण तो यही कि अपराधी की उम्र छोटी होती है, अपराध की बड़ी और अपराधी को सजा चाहे मिल भी जाये, किये हुए अपराध की कथा अदंडित अनंतकाल तक लोगों के मन-मानस में घूमती रहती है. इसी वजह से पुराने वक्तों में कहा जाता था कि कलंक काजल से कहीं ज्यादा काला होता है, कुछ इतना कि उसे आपकी चिता की आग भी नहीं जला पाती. याद करें, अश्वत्थामा की कथा. अश्वत्थामा भावी पीढ़ी के नाश के पाप का भागी होकर अपने माथे के बहते घावों के साथ अनंतकाल तक जीने को अभिशप्त है. यह कथा याद दिलाती है कि कुछ अपराध बहुत गंभीर होते हैं. उन्हें मानवता की रक्षा के नाते भुलाया नहीं जा सकता. तेजपाल-प्रकरण में सामने आयी बातों पर नजर रखें, तो लगेगा कि अगर मुख्यधारा में मिशनरी पत्रकारिता की मुहिम को जिंदा रखने के लिए कोई भावी पीढ़ी जरूरी है, तो फिर तेजपाल ने उस पीढ़ी को नष्ट करने सरीखा अपराध किया है.

अपराधी को सजा मिल जाये, तो भी नहीं माना जा सकता कि सार्वजनिक जीवन की मर्यादा बहाल हो गयी- ऐसा मानने की दूसरी वजह है स्वयं उस पद की प्रकृति, जिस पर बैठ कर अपराध किया गया है. क्या हम कभी सोच सकते हैं कि किसी युद्धरत देश का रक्षामंत्री अपने शत्रु मुल्क का भेदिया बनने का अपराध करेगा? सामान्य सूझ कहती है- यह अकल्पनीय है. ठीक इसी तरह भारत जैसे लोकतंत्र में जो ऐतिहासिक रूप से अधिकार-वंचित समुदाय (महिला, दलित, आदिवासी आदि) के किन्हीं विशेषाधिकारों को स्वीकार करता है, लोकतंत्र के मुहाफिजों के बारे में यह कल्पना नहीं की जा सकती कि वे वंचित समुदाय के सामान्य अधिकारों के हनन का प्रयास करेंगे. लोकतंत्र के मुहाफिज के रूप में पहला नाम न्यायपालिका का आता है और दूसरा पत्रकारिता का. भारत सरीखे बनते हुए लोकतंत्र में जज की कुर्सी पर बैठे व्यक्ति से उम्मीद की जाती है कि वह वंचित समुदाय की अधिकार-रक्षा के मामले में कहीं ज्यादा सक्रियता का परिचय देगा और पत्रकार से आशा बंधी होती है कि वह अन्याय के उन ढंके-छुपे कोनों को भी देखे और दिखायेगा, जिसे सत्ता के घटाटोप के बीच अदालत तक की आंखें नहीं देख पातीं. मामला चाहे तरुण तेजपाल पर लगे आरोपों का हो या सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज अशोक गांगुली पर लगे आरोपों का- हम इन उम्मीदों को उल्टा लटका पाते हैं.

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