भारत विरोधाभासों का देश है. यह बात सामाजिक-राजनीतिक जीवन में ही नहीं, आर्थिक जीवन में भी बार-बार साबित होती है. इसी विरोधाभास को मजबूत करती एक खबर रोजगार के मोरचे से आयी है. श्रम मंत्रालय के एक सर्वेक्षण के मुताबिक देश में उच्च शिक्षा के प्रसार के साथ ही स्नातकों में बेरोजगारी बढ़ी है. इससे भी बड़ा विरोधाभास शायद यह है कि उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों में बेरोजगारी दर, निरक्षरों की तुलना में ज्यादा है.
सर्वेक्षण के अनुसार स्नातक स्तर की शिक्षा प्राप्त कर चुके हर तीन नौजवान (15-29 आयुवर्ग) में एक बेरोजगार है, जबकि इसी आयु वर्ग के अनपढ़ व्यक्तियों में बेरोजगारी की दर सबसे कम (3.7 फीसदी) है. अर्थशास्त्रियों का एक वर्ग लगातार इस ओर ध्यान दिलाता रहा है कि हाल के वर्षो में भारत में आर्थिक वृद्धि दर भले ऊंची रही हो, लेकिन यह बुनियादी तौर पर रोजगारविहीन विकास की स्थिति का संकेत करती है.
श्रम मंत्रालय के सर्वेक्षण से पहली नजर में यह आशंका सही साबित होती दिख रही है. शिक्षित नौजवानों में बेरोजगारी की दर ज्यादा होने की एक व्याख्या यह कह कर भी की जा सकती है कि देश में उच्च शिक्षा के स्तर पर गुणवत्ता का व्यापक अभाव है और मौजूदा प्रणाली रोजगार की नयी स्थितियों के अनुरूप स्नातक तैयार कर पाने में एक हद तक असफल साबित हो रही है. उच्च शिक्षा के स्तर पर गुणवत्ता के अभाव को इंगित करनेवाले सर्वेक्षण हाल के समय में लगातार आये हैं. सच्चाई का अंश दोनों ही व्याख्याओं में है.
ध्यान देने की एक बात यह भी है कि बेरोजगारी की दर अशिक्षित नौजवानों में भले कम हो, लेकिन इस तथ्य से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि अशिक्षित नौजवान अनियोजित क्षेत्र में हासिल रोजगार के बूते कोई बेहतर स्थिति में हैं. अशिक्षित नौजवानों की सबसे ज्यादा संख्या स्वरोजगार में लगी है और अगर नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के नवीनतम आंकड़ों को देखें तो पता चलता है कि स्वरोजगार में लगे तथा अनपढ़ लोगों के बीच आर्थिक अभाववश आत्महत्या और हत्या करने की दर बहुत ज्यादा है. चुनावी शोर में श्रम मंत्रालय का सर्वेक्षण भले बहस का मुद्दा न बन पाये, लेकिन यह देश की चालू अर्थनीति के दोषों को उजागर तो कर ही रहा है.