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भारत में धन तो बहुत बढ़ा है, लेकिन इस देश का नागरिक अपनी स्वतंत्रताओं के मामले में कितना आगे बढ़ा है? छह दशक पहले भारतीय अर्थव्यवस्था पौने तीन लाख करोड़ रुपये की थी, जो आज 57 लाख करोड़ रुपये की हो चुकी है. लेकिन, दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शुमार होते भारत में क्या […]

भारत में धन तो बहुत बढ़ा है, लेकिन इस देश का नागरिक अपनी स्वतंत्रताओं के मामले में कितना आगे बढ़ा है? छह दशक पहले भारतीय अर्थव्यवस्था पौने तीन लाख करोड़ रुपये की थी, जो आज 57 लाख करोड़ रुपये की हो चुकी है.
लेकिन, दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शुमार होते भारत में क्या उन लोगों की जीवन-स्थितियां भी इसी तेजी से बेहतर हुई हैं, जिनकी आंखों से आंसू पोंछने के वादे के साथ इस देश के पहले प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता की देवी का आह्वान किया था? इस प्रश्न का एक उत्तर मानव-विकास (ह्यूमन डेवलपमेंट) से संबंधित संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट देती है. व्यक्ति की आयु-संभाविता, शिक्षा और सकल राष्ट्रीय आय में हिस्सेदारी को ध्यान में रख कर तैयार इस रिपोर्ट के मुताबिक मानव-विकास के पैमाने पर साल 2014 में भारत 0.609 अंकमान के साथ 188 देशों की सूची में 130 वें स्थान पर है.
क्या अर्थ निकाला जाये इसका? उत्तर बहुत हद तक हमारे-आपके नजरिये पर निर्भर है. बेशक साल भर पहले जारी मानव-विकास सूचकांक में हमारा देश तनिक और नीचे (135वें स्थान पर) था और इस साल स्थिति कुछ सुधरी है, लेकिन यह भी याद रखना होगा कि साल 1980 में मानव-विकास सूचकांक के लिहाज से भारत का अंकमान 0.362 था, जो अभी सिर्फ 0.609 हुआ है. इस बढ़ोत्तरी का सालाना औसत महज 1.54 प्रतिशत है.
यह बढ़ोतरी इतनी कम है कि कोई मन बहलाने के लिए भले कह ले कि पाकिस्तान और बांग्लादेश की तुलना में भारत इस सूचकांक में तनिक ऊंचे अंकमानवाला है, लेकिन यह भी याद रखना होगा पाकिस्तान या बांग्लादेश की तरह भारत में अपवादस्वरूप इमरजेंसी के दौर को छोड़ कर कभी ऐसी हालत नहीं रहे कि लोकतंत्र डावांडोल हालत में रहा हो. और, फिर मंझोले दर्जे के मानव-विकासवाले राष्ट्रों के औसत अंकमान (0.630) के लिहाज से भी देखें, तो भारत नीचे ही नजर आता है.
अमर्त्य सेन के शब्दों में कहें तो ‘अगर विकास का लक्ष्य उन बाधाओं की लगातार अनुपस्थिति है जो मनुष्य को अपनी क्षमता बढ़ाने से रोकती और इस कारण मानवोचित स्वतंत्रताओं में कमी करती हैं, तो फिर कहना होगा भारत में आर्थिक-विकास का लक्ष्य बीते तीन दशकों में मानव-विकास के लिहाज से बहुत संतोषजनक नहीं रहा है.’ यह हमारे लोकतंत्र के लोक-कल्याणकारी स्वरूप पर भी एक टिप्पणी है. मानव-विकास रिपोर्ट के संकेत यही हैं कि हमारी लोकतांत्रिक राजनीति को लोक-कल्याणकारी होने के लिए अभी काफी कुछ करने की जरूरत है.
Prabhat Khabar Digital Desk
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