।। पुष्पेश पंत ।।
(अंतरराष्ट्रीय मामलों के विश्लेषक)
आज का युवा–अधेड़ मतदाता इस बात को समझता है कि सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता का सवाल कुशासन और भ्रष्टाचार से ध्यान बंटाने की साजिश है. भ्रष्टाचार पर सरकारी लीपापोती से संवैधानिक संस्थाओं का अवमूल्यन हुआ है
जैसे–जैसे पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों में मतदान की तिथि निकट आ रही है, इससे जुड़े महारथियों का पारा चढ़ता जा रहा है. किसी की मुखाकृति अनायास कुरूप होती जा रही है, तो लगभग सभी अपनी वाणी का संयम खोने लगे हैं. इस अटकलबाजी का बाजार गर्म है कि इन चुनावी नतीजों का क्या प्रभाव लोकसभा वाले चुनावों पर पड़ेगा?
हमारी समझ में मतगणना के बहुत पहले चुनाव प्रचार ने अशुभ संकेत, अपशकुन प्रकट कर दिये हैं, जिन्हें अनदेखा करना हमारे जनतंत्र के लिए घातक ही सिद्ध हो सकता है.
कुछ बातें बेहद अटपटी और कुतर्की हैं.
अक्सर यह दुहराया जाता है कि मत जुटाने के चक्कर में हर बात का‘राजनीतीकरण’ किया जा रहा है. भाजपा हो या कांग्रेस दोनों एक–दूसरे पर यह आरोप लगाते रहे हैं. कोई यह नहीं सोचता कि जनतंत्र में राजनीति करना कोई अपराध नहीं! हां, संकीर्ण स्वार्थो से प्रेरित, प्रायोजित राजनीति का पर्दाफाश होना ही चाहिए.
इसी तरह दूसरे जिस शब्द का दुरुपयोग होता है, वह है ध्रुवीकरण. कभी हम परेशान रहा करते थे कि भारतीय राजनीति में सक्रिय दल विचारधारा के आधार पर अपनी अलग पहचान नहीं रखते. जाति, क्षेत्र, भाषा, मजहब के दबाव में या फिर करिश्माई व्यक्तित्व के चमत्कार से अभिभूत अनुयाई नेता के पीछे लगे रहते हैं.
जब तक ध्रुवीकरण नहीं होता, तब तक हमारा जनतंत्र वयस्क नहीं समझा जा सकता आदि. इस सोच को इस अनुभव ने बढ़ावा दिया था कि आजादी की लड़ाई के दौरान कांग्रेस की बरगद सरीखी छत्रछाया में जाने कितने परस्पर विरोधी–प्रतिद्वंद्वी तत्व एकजुट थे.
औपनिवेशिक शासकरूपी शत्रु की पराजय के बाद इन्हें एकजुट रखने को कोई विचारधारा नहीं बची रही. रजनी कोठारी जैसे विद्वान ने 1970 के दशक में कांग्रेस के लंबे समय से चले आ रहे एकाधिकारी वर्चस्व को देखते हुए भारतीय जनतंत्र को एकदलीय प्रभुत्व का उदाहरण परिभाषित किया था. इन्हीं दिनों वरिष्ठ पत्रकार गिरिलाल जैन ने नेहरू–गांधी परिवार के संदर्भ में भारतीय जनतंत्र को वंशवादी जनतंत्र का नाम दिया था.
तब से आज आधी सदी के बाद बहुत सारी चीजें बदल चुकी हैं, मगर इस बात को नकारना या झुठलाना कठिन है कि वह पुराना दर्पण आज भी उपयोगी है. जैसी गैर–कांग्रेसवाद की लहर 1967-68 में उत्तर भारत में ज्वार के रूप में उफनी थी, कुछ वैसा ही दृश्य इस समय विधानसभा चुनाव अभियान में नजर आ रहा है.
जम्मू–कश्मीर, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओड़िशा, तमिलनाडु, गोवा, गुजरात आदि राज्यों में कांग्रेस विरोधी दल शासन कर रहे हैं. आंध्र की हालत डांवाडोल है और हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड जैसे छोटे राज्यों में भी कांग्रेस निरापद नहीं. विडंबना है कि प्रमुख विपक्षी दल भाजपा की हालत उत्तर प्रदेश, बिहार सरीखे निर्णायक बड़े राज्यों में बेहतर नहीं. अकेले नरेंद्र मोदी के सहारे ही उसकी नैया सागर के तूफानी थपेड़ों से जूझ रही है.
यह बात गांठ बांधना उपयोगी होगा कि इन चुनावों में कोई वैचारिक ध्रुवीकरण नहीं नजर आ रहा है. जहां तक आर्थिक नीतियों का सवाल है कांग्रेस और भाजपा के बीच कोई बुनियादी अंतर नहीं. केंद्र सरकार की ‘किसान और खेती विरोधी’ नीतियों का विरोध समाजवादी मुलायम सिंह नूरा कुश्ती वाले अंदाज में ही करते हैं. साम्यवादी बेचारे तो कब से हाशिये पर पस्त पड़े हैं.
कुल मिला कर हमारे पाले में कौन और प्रतिपक्षी बैरी टोली में कौन वाली चर्चा बेमानी हो चुकी है. मौकापरस्त गंठबंधनों ने धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता की बहस से अपनी विश्वसनीयता नष्ट कर दी है. आरोप–प्रत्यारोप तोता रटंत की तरह दोहराये जा रहे हैं पर यह सोचना नादानी है कि कोई भी अल्पसंख्यक मुसलमान, सिख या ईसाई इससे प्रभावित होकर अपना वोट हथियार की तरह सामरिक तरीके से इस्तेमाल करेगा. नेता चाहे किसी भी दल के हों अपने वोटबैंकों को तुष्टीकरण से बचाये रखने–भुनाने के प्रबंधन में ही वह व्यस्त हैं.
दुर्भाग्य यह है कि अपनी असमर्थता का अहसास होने की जगह सांप्रदायिक भावावेश को भड़का कर अपने ‘पारंपरिक मतदाता’ को साथ रखने का प्रयास देश की एकता अखंडता को जोखिम में डाल रहा है. मुजफ्फरनगर हो या गोपालगढ़, इनको धुंधलाने के लिए बारंबार गुजरात दंगों का उल्लेख अनिवार्यत: भाजपा को 1984 के वंशनाशक सिख विरोधी रक्तपात में कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराने का मौका देता है.
आज का युवा ही नहीं अधेड़ मतदाता भी इस बात को भली–भांति समझता है कि सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता का सवाल कुशासन और भ्रष्टाचार से ध्यान बंटाने की धूर्त साजिश के अलावा कुछ नहीं. विकास के नाम पर जारी परियोजनाएं इस का शिकार हुई हैं और भ्रष्टाचार पर सरकारी लीपापोती के कारण ही संवैधानिक संस्थाओं का निरंतर अवमूल्यन हुआ है.
यहां संसद के गतिरोध, पीएसी के तिरस्कार का जिक्र करने का अवकाश नहीं, पर न्यायपालिका की निगरानी को लक्ष्मण रेखा के उलंघन के समान बताने का कुटिल प्रयास अनदेखा नहीं किया जा सकता. सबसे चिंताजनक बात चुनाव आयोग को अक्षम कमजोर बनाने का प्रयास है. उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनावों के समय सलमान खुर्शीद ने अपने असंयमी भाषणों से जो निंदनीय परंपरा आरंभ की, उसका अनुसरण राहुल गांधी तक करने लगे हैं.
जवाबी हमले में मोदी अतिनाटकीय फिल्मी डॉयलागों का इस्तेमाल करते नजर आते हैं. कुल मिला कर आदर्श चुनाव संहिता नाम मात्र को ही शेष रह गयी है. तर्क–संगत बहस या विचार–विमर्श की जगह हमारे सार्वजनिक जीवन में बची नहीं रही है. इस बात की आशंका प्रबल है कि आनेवाले दिनों में यह घमासान और भी अभद्र, अशिष्ट तेवर धारण करेगा.
लगता है लोकसभा चुनाव तक इस हिंसक–आक्रामक मानसिकता के जोर पकड़ने की वजह से उन मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना असंभव हो जायेगा, जिनका बुनियादी सरोकार हमारी जिंदगी से है– महंगाई, रोजगार, नागरिक सुविधाएं, शांति और सुव्यवस्था, कानून का राज.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अभाव में निर्भय–निष्पक्ष चुनाव की कल्पना नहीं की जा सकती. चुनावी जनमत संग्रह और विश्लेषणों के प्रसारण को लेकर कांग्रेस ने चुनाव आयोग के यहां शिकायत दर्ज की है. यह असहिष्णु तानाशाही महत्वाकांक्षा का ही उदाहरण है.
समय रहते इसका प्रतिरोध ना करना बाद में प्रतिकार–प्रतिरोध की संभावना नष्ट कर देगा. मौजूदा चुनावी–संघर्ष मात्र पांच विधानसभाओं के आधिपत्य के लिए ही नहीं, देश भर में प्रभुत्व की लड़ाई का हिस्सा बन चुका है.