दीपावली प्रकाश का पर्व है. खुशी-उल्लास का पर्व है. कुछ खोकर दूसरों को देने का पर्व है. भारत ज्ञान का सागर है तो भारतवासी ज्ञान के पुजारी, इसीलिए भारतीय मनीषियों ने तमसो मा ज्योतिर्गमय कह प्रकाश का स्वागत और अभिनंदन किया है. आज पूरा विश्व भारत के ज्योतिर्गमयी प्रकाश का ऋणी है. पर विडंबना है कि आज हमारे देश की एक बड़ी आबादी अशिक्षित, कुपोषित और फटे-पुराने कपड़ों पर पैरों से पैर ढकने को विवश है.
ऐसी स्थिति में पर्व-त्योहारों को हर्षोल्लास के साथ मनाने का कोई औचित्य नहीं रह जाता! यह तो चिराग तले अंधेरा वाली कहावत को चरितार्थ करने वाली बात हो गयी. सरकार के सतरंगी सपने इन गरीबों, बेसहारों के लिए मरहम-पट्टी नहीं बल्कि केवल ढकोसले हैं. लोकलुभावने भाषण देकर गरीबों की छाती पर पैर रखकर सरकार वोट तो मांग लेती है पर सवाल जब कल्याण का हो तो मुंह फेर लेती है. वर्तमान भारत के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक परिदृश्य पर गौर करें तो हालात यह कतई इजाजत नहीं देते कि पटाखों की गूंज के बीच हम आतिशबाजी करें.
वहां सरहद पर हमारे सैनिक भाई गोलियों की गूंज के बीच हमें बचाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं. ऐसे समय में अपनी सहिष्णुता और संवेदनशीलता का बेहतरीन नमूना पेश किया जाये ना कि कानफाड़ू पटाखों के बीच तमाम बुराइयों (बीमारियों) को आमंत्रण दें. कहां हम पुराने समय में घी के दिये जलाते थे, जिससे वर्षा ऋतु खत्म होने के बाद कीड़े-मकोड़ों के नाश होने से डेंगू, मलेरिया जैसी बीमारियों से राहत मिलती थी, वहीं आज सतरंगी बल्ब कीड़ों को आमंत्रित करते हैं. दीपावली रोशनी का पर्व है, आइए दिये जलायें, दिल नहीं. जो गिरे हैं, उनको उठायें.
सुधीर कुमार, हंसडीहा, दुमका