।। अश्विनी महाजन।।
(एसोसिएट प्रोफेसर दिल्ली विश्वविद्यालय)
जब डॉ रघुराम ने रिजर्व बैंक के गर्वनर का पद संभाला, तब तक अर्थव्यवस्था की स्थिति काफी डांवाडोल हो चुकी थी. डॉलर के मुकाबले में रुपया पिछड़ता हुआ ऐतिहासिक निचले स्तर पर था. चालू खाते का विदेशी भुगतान का घाटा पिछले साल 88 अरब डॉलर के ऊंचे स्तर पर पहुंचने से भुगतान का संकट भयंकर रूप धारण कर चुका था. मंहगाई की दर भी महीने-दर-महीने ऊंचे स्तर पर बनी हुई थी. ऐसे में स्वभाविक तौर पर रघुराम राजन से अपेक्षाएं थीं कि वे इन सभी समस्याओं की तरफ ध्यान देंगे. उन्होंने पद संभालते ही अपनी मौद्रिक नीति घोषणा में बहुत-सी बातें कहीं. रुपये की बदहाली को रोकने हेतु ‘स्वैप’ की रणनीति अपनाने की घोषणा भी की और मौद्रिक नीति की कड़ाई की बात भी की. चालू खाते पर भुगतान घाटे को कम करने के लिए सोने के आयात पर अंकुश लगाने के उपायों को भी बताया.
इन प्रयासों से चिंता का विषय बना रुपया कुछ संभला और पिछले लगभग एक माह से ज्यादा समय से 61-62 रुपये प्रति डॉलर पर चल रहा है. रुपये की बदहाली, महंगाई की एक प्रमुख वजह बतायी जा रही थी. स्वभाविक तौर पर रुपये की कमजोरी के चलते हमारे आयात महंगे होते जा रहे थे. यह अपेक्षा थी कि रुपये के मजबूत होने से मंहगाई को थामा जा सकेगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. सरकार द्वारा 14 अक्तूबर को जारी आंकड़ों के अनुसार सितंबर में एक बार फिर महंगाई की दर 6.42 प्रतिशत पर पहुंच गयी. गौरतलब है कि अगस्त में यह दर 6.10 प्रतिशत ही थी. पिछले कई महीनों से महंगाई की दर लगातार बढ़ती ही जा रही है. खास बात यह है कि अगर उपभोक्ता कीमत सूचकांक का आधार लें, तो यह महंगाई की दर सितंबर में 9.84 प्रतिशत तक पहुंच गयी है.
महंगाई की दर खाने-पीने की चीजों में और भी ज्यादा है. पिछले दो माह में खाद्य मुद्रास्फीति 18 प्रतिशत दर्ज की गयी, जबकि जुलाई में यह 12 प्रतिशत के आसपास ही थी. रिजर्व बैंक का कहना है कि महंगाई की दर सुरक्षित सीमा, 5 प्रतिशत से कहीं ज्यादा बढ़ गयी है. इसके चलते रिजर्व बैंक के गवर्नर मंगलवार को ब्याज दर घटाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे. महंगाई को रोकने के आरबीआइ के सभी उपाय असफल नजर आ रहे हैं. इसलिए 29 अक्टूबर 2013 को रिजर्व बैंक ने एकबार फिर से रेपो रेट को 0.25 प्रतिशत बढ़ा कर महंगाई थामने की मंशा दोहरायी है.
यदि कुछ सरकारी कर्मचारियों को छोड़ दें, तो लगभग सभी कर्मियों, मजदूरों और अन्य वेतनभोगियों की आमदनी रुपयों में निश्चित होती है और उनमें महंगाई के साथ बढ़ोतरी नहीं होती. ऐसे में जब दामों में बढ़ोतरी होती है, तो उनका जीना दूभर हो जाता है. कभी-कभी प्याज की ऊंची कीमत महंगाई का प्रतीक बनती है, तो उसे जैसे-जैसे सस्ता कर सरकार अपने दायित्व की इति श्री मान लेती है. लेकिन, महंगाई का दानव लगातार देश के लोगों की संवृद्घि को अपना ग्रास बनाता चला जाता है.
रिजर्व बैंक पिछले तीन वर्षो से लगातार प्रयासरत है कि महंगाई को थामा जा सके. सवाल है कि आखिर तमाम उपायों के बाद भी महंगाई क्यों नहीं थम रही है? आर्थिक सिद्घांत के अनुसार महंगाई बढ़ने के दो कारण हैं, एक मांग में वृद्घि और दूसरा लागतों में वृद्घि या पूर्ति में कमी. मांग में वृद्घि लोगों की आमदनी बढ़ने से होती है. लोगों की मौद्रिक रूप से आमदनी बढ़ रही है. आमदनी बढ़ने के साथ मुद्रा की पूर्ति भी काफी बढ़ी है. मुद्रा की पूर्ति बढ़ने का मुख्य कारण सरकार के खर्चो में अनाप-शनाप वृद्घि है. गौरतलब है कि इस कालखंड में मुद्रा की पूर्ति में पांच गुना वृद्घि हुई है. एक तरफ बढ़ती आमदनी और दूसरी तरफ बढ़ती मुद्रा की पूर्ति, ये अर्थव्यवस्था में चीजों की मांग बढ़ाती हैं.
मांग बढ़ने के साथ-साथ पूर्ति में बराबर की वृद्घि नहीं हुई, जिससे कीमतें तेजी से बढ़ने लगीं. खाने-पीने की चीजों में मुद्रास्फीति सामान्य मुद्रास्फीति से लगभग दुगुनी रही. कारण, सरकारी नीतियों में खेती की अनदेखी हुई. आज आनाज, दालों, खाद्य तेल, फल-सब्जी के दाम आसमान छूने लगे हैं. ऐसे में सरकार की तमाम कमियों को रिजर्व बैंक अपनी मौद्रिक नीति से दूर नहीं कर सकता. रिजर्व बैंक देश में उत्पादन नहीं बढ़ा सकता. रिजर्व बैंक यही कर सकता है कि देश में उधार की मात्र को कम रखे, ताकि लोग उधार लेकर ज्यादा खरीद न कर सकें. लेकिन रिजर्व बैंक की यह मौद्रिक नीति विकास दर को कम करती है. यदि देश में उधार की मात्र कम होती है, तो लोग कम चीजें खरीदेंगे. ऐसे में उद्योगों को ज्यादा उत्पादन करने का प्रोत्साहन नहीं होगा. इसलिए जरूरी है कि महंगाई को थामने के लिए सरकार अपने खर्चो पर लगाम लगाये, ताकि मुद्रा की आपूर्ति न बढ़े. साथ ही साथ कृषि विकास के लिए तमाम उपाय अपनाये जायें. आयातों पर अंकुश लगे, ताकि रुपया कमजोर न हो.