झारखंड में बालू घाटों की नीलामी चल रही है. कुछ जगहों पर विरोध के कारण नीलामी स्थगित कर दी गयी. अधिकांश जगहों पर बालू घाट की बोली मुंबई और बाहर की कंपनियों ने जीती. इससे ऐसा संदेश जा रहा है कि साजिश के तहत बाहर की कंपनियों को बालू घाट दिलाने का काम हो रहा है. झारखंड की छोटी कंपनियां नीलामी में पीछे रह जाती हैं. जो कंपनियां नीलामी में भाग लेना चाहती भी हैं, उन पर हट जाने का दबाव बनाया जाता है. इसी से ऐसा लगता है कि इस पूरे मामले में गड़बड़ी है. अब यह बड़ा मुद्दा बन गया है. पूरे राज्य में लगभग पांच सौ करोड़ का यह धंधा है.
इसलिए इसमें राज्य के ताकतवर लोग प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कूद पड़े हैं. झारखंड के एक बड़े राजनीतिज्ञ के परिजन उन जिलों में दिख जाते हैं, जहां बालू की नीलामी होती है. क्या कारण है वहां जाने का? बालू घाट की नीलामी का मामला अब राजनीतिक हो गया है. पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी राज्य भर में आंदोलन चलाने की तैयारी कर रहे हैं. यह मामला बड़ा इसलिए भी है क्योंकि इस नीलामी से यह आशंका बन गयी है कि राज्य में अब बड़ी कंपनियां मनमाने ढंग से दाम वसूलेंगी. बालू का दाम बेतहाशा बढ़ेगा.
यह राज्य की प्राकृतिक संपदा है. इसे किस तरीके से, कितना निकालना है, यह अधिकार ग्राम सभा का है, पर झारखंड में इस नियम को ही बदल दिया जा रहा है. बड़ी कंपनियां किसी भी बालू घाट से अधिकतम बालू का दोहन करेगी. उसे कोई मतलब नहीं रहेगा कि इसका पर्यावरण पर क्या असर पड़ेगा, आसपास के गांवों पर क्या असर पड़ेगा. जब नदी में बाढ़ आती है तो उसे ग्रामीण झेलते हैं, लेकिन जब नदी के बालू की बिक्री की बात आ रही है तो बड़ी कंपनियां आ गयी हैं. ऐसे में भविष्य में टकराव से इनकार नहीं किया जा सकता.
वैसे, अभी भी बालू घाटों पर रंगदारों/ताकतवर लोगों का कब्जा रहता है, पर ये लोग स्थानीय होते हैं, गांव या आसपास के होते हैं. अब ग्रामीणों को अपने काम के लिए भी बालू लाना पड़े तो नदी के बगल में रहनेवाले को भी बड़ी कंपनियों के दाम पर ही बालू मिलेगा. ऐसे में ग्रामीणों का गुस्सा स्वाभाविक है. सरकार को यह देखना चाहिए कि उसके निर्णय से कहीं स्थानीय लोगों, ग्राम सभा के अधिकारों का हनन तो नहीं हो रहा है.