यूनेस्को की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक भारत के महानगरों में प्रत्येक दस में तीन व्यक्ति देश के किसी अन्य हिस्से से आकर बसा ‘बाहरी’ है. इस ‘बाहरी’ के साथ महानगर के तालमेल के संकेत मिलते हैं उन नामों से, जिनसे वहां बाहरी व्यक्ति पुकारे जाते हैं. मुंबई या लुधियाना में ‘भैया’ और दिल्ली में ‘बिहारी’ ऐसे ही दो पहचानसूचक नाम हैं.
कहना न होगा कि जब कोई आपको इन नामों से पुकार रहा होता है, तो असल में वह आपकी हैसियत को हिकारत से देख रहा होता है. यूनेस्को की रिपोर्ट भी यही तस्दीक करती है. रिपोर्ट के अनुसार बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, यूपी, राजस्थान से उजड़ कर मुंबई, दिल्ली, सूरत, लुधियाना जैसे बड़े शहरों में बसनेवाले छोटे-मोटे धंधों से जीविका कमाने और अमानवीय स्थिति में रहने को बाध्य हैं. नगर विकास की योजनाएं इतनी समावेशी नहीं हुई हैं कि दूरदराज इलाकों से आकर बसनेवालों को गरिमापूर्वक जीवन गुजारने लायक स्थितियां प्रदान कर सके. कोई कह सकता है कि पलायन करके महानगरों में आ बसनेवाला हर कोई मजबूरी का मारा नहीं होता.
कुछ अभाव की स्थिति में पलायन करते हैं तो कुछ पहले से हासिल अवसरों का दायरा बढ़ाने और बेहतर के लिए. बात ठीक है, पर भारत में आंतरिक पलायन की प्रवृत्तियों पर ध्यान देने से पता चलता है कि यहां ज्यादातर मौसमी और चक्रीय पलायन होता है. ऐसे पलायन में सर्वाधिक संख्या भूमिहीनों, आपदा पीड़ित, सीमांत-किसानों या अकुशल श्रमिकों की होती है.
रिपोर्ट में भी इशारे हैं कि सर्वाधिक पलायन उन इलाकों से हो रहा है, जहां ज्यादातर लोग खेती या उससे जुड़े कामों पर आश्रित हैं. घर-घाट छोड़ दिहाड़ी के लिए महानगरों में जानेवाले इन लोगों के लिए अर्थव्यवस्था के अनियोजित क्षेत्र में एक तो रोजगार और नियमित आमदनी की गारंटी नहीं होती, दूसरे महानगर की सामाजिकता इन्हें हर वक्त आशंका में जीने के लिए बाध्य करती है कि कहीं जीवन और जीविका को दूभर करनेवाला कोई अभियान न शुरू हो जाये. यूनेस्को की यह रिपोर्ट नगर विकास की सरकारी नीतियों को समावेशी बनाने की जरूरत का रेखांकन करती है और इस दिशा में हम जितनी जल्दी चेत जायें उतना ही अच्छा, क्योंकि विकास के मामले में बढ़ती क्षेत्रगत असमानता सामाजिक अव्यवस्था को जन्म देती है.