।।डॉ बुद्धिनाथ मिश्र।।
(वरिष्ठ साहित्यकार)
कल रात शरद पूर्णिमा थी और मैं पूरी रात ट्रेन की खिड़की से चांद को निहारता रहा. ट्रेन रुकती तो चांद रुक जाता और ट्रेन दौड़ती तो चांद आकाश में भागने लगता. इसी अनुभूति को कविता की भाषा में यों कहा गया है- ‘चलने पर चलता है सिर पर नभ का चंदा. थमने पर ठिठका है पांव मिरगछौने का.’ खिड़की के भीतर अंधेरा और सहयात्रियों का खर्राटा था, बाहर दूर-दूर तक छिटकी हुई चांदनी थी और थी अपूर्व शीतल शांति. बस यों कहिये कि ‘जाने किस बात पे मैं चांदनी को भाता रहा, और बिना बात मुझे भाती रही चांदनी.’ अपने गांव में होता तो किसी बंधु के यहां कोजागरा पर्व में शामिल होता. बड़ा महत्व है वहां इस शरद पूर्णिमा का, नव विवाहित वर-वधू के लिए. चांदनी रात में गोबर से लिपे, अल्पना से सजे आंगन में जगन्माता लक्ष्मी और इंद्र व कुबेर की विधिवत पूजा, अभ्यागतों का पान-मखान से सत्कार और वर-वधू की अक्ष-क्रीड़ा (जुआ खेलना) कोजागरा पर्व का विशेष आकर्षण है. नव विवाहित जोड़ों के आनंद के लिए दोनों को जुआ खेलाया जाता है और चूंकि वधू अपनी ससुराल में नयी होती है, जहां वरपक्ष की स्त्रियां और युवतियां अधिक होती हैं, इसलिए मीठी बेईमानी कर वर को जिता भी दिया जाता है.
बचपन की यादें अब भी पुलकित कर जाती हैं. केले के थम्भ को काट कर नाव बनायी जाती थी, उसे रंगीन खपच्चियों से सजाया जाता था, उसमें अन्य चीजों के साथ जलता दीया रख कर नदी की प्रवहमान धार में या वर्षा-जल से लबालब भरे पोखरे में प्रवाहित किया जाता था. लक्ष्मी-पूजन के उपरांत नव विवाहित जोड़े पूरे टोले के लोगों को पान-मखान बांटते हैं. कोजागरा के भार (उपहार) के रूप में वधू के मायके से बोरों में भर कर तालमखाना आता है. मखाना बहुत हल्का होता है. तीन-चार किलो में ही एक बोरा भर जाता है. तालमखाने मिथिलांचल के पोखरों में ही होते हैं. और कहीं नहीं. इनके पत्ते कमल के पत्ताें की तरह गोल-गोल, मगर कांटेदार होते हैं. उनकी जड़ में रुद्राक्ष की तरह गोल-गोल दानों के गुच्छे होते हैं, जिन्हें आग में तपा कर उस पर लाठी बरसायी जाती है, जिससे उन दानों के भीतर से मखाना निकल आता है. यह प्रक्रिया बहुत श्रम मांगती है, जिसे मल्लाह लोग ही पूरा कर पाते हैं. जिस दिन वे हार मान लेंगे, उस दिन ताल मखाने पूरी दुनिया में दुर्लभ हो जायेंगे. पता नहीं, इस प्रक्रिया का यंत्रीकरण क्यों नहीं किया गया!
कोजागरा की रात हमलोग आंगन-आंगन जाकर मखाना लूटते थे और सुबह तड़के उठ कर नदी किनारे लगे केले के थम्भ की सुसज्जित नावों से बुङो हुए दीये और अन्य चीजें बटोर कर घर ले आते थे, जिनसे सभी मिल कर खेलते थे. उन छोटी-छोटी चीजों को पाकर कितनी खुशी होती थी! बड़े होने पर गांव से बाहर रहने लगे तो वह सुख-सागर पीछे रह गया; और कोजागरा की रात केवल पान-मखान और खीर खाकर संतोष करना पड़ा. आज भी वही परंपरा जारी है.
वेद कहता है कि चंद्रमा का उद्भव विराट पुरुष के मन से हुआ-’चंद्रमा मनसो जात:, चक्षो: सूर्यो अजायत’ (पुरुषसूक्त). चंद्रमा और सूर्य, ये ही दोनों तो सृष्टि के माई-बाप हैं. परिवार में भी मां को चंद्रमा की भांति शीतल और पिता को सूर्य की भांति तेजोमय रहना होता है. चंद्रमा हमारे जीवन को कई रूपों में प्रभावित करता है. उसका संबंध पृथ्वी के जलतत्व से है. इसीलिए समुद्र में ज्वार-भाटा चंद्रमा की कलाओं के अनुसार घटता-बढ़ता है. पूर्णिमा की रात समुद्र का ज्वार चरम सीमा पर रहता है. लगता है, जैसे समुद्र की लहरें उठ-उठ कर चांद को छूना चाहती हैं, जिसे कविता में यों कहा गया है- ‘यह कैसा अभिशाप, चांद तक, सागर का मनुहार न पहुंचे. नदी-तीर एकाकी चकवे का, क्रंदन उस पार न पहुंचे.’ इसे अग्रज कन्हैयालाल नंदन अकसर गुनगुनाया करते थे.
समुद्र मंथन के बाद महार- के रूप में एक साथ निकलने के कारण चंद्रमा और लक्ष्मी भाई-बहन हुए. चूंकि संसार के पालनकर्ता विष्णु की पत्नी लक्ष्मी जगन्माता हैं, इसलिए उनका भाई चंद्रमा सबके मामा हैं-चंदा मामा. शास्त्र कहता है कि लक्ष्मी अगर विष्णु के साथ आती हैं, तो उनका वाहन गरुड़ होता है, लेकिन जब अकेली आती हैं तो उनका वाहन उल्लू होता है. इसलिए किसी भी घर में लक्ष्मी तभी शोभा देती हैं, जब वहां दान-तप-त्याग जैसे सात्विक कार्य होते हैं. कोजागरा की रात की लक्ष्मी-पूजा में त्रिपुरसुंदरी लक्ष्मी का युवती के रूप में सांगोपांग वर्णन करते हुए उन्हें सर्वदा अपने घर में निवास करने के लिए आवाहन किया जाता है. मजे की बात यह है कि पूजा के बाद अन्य देवताओं को तो अपने-अपने स्थान पर चले जाने का अनुरोध किया जाता है (पूजितोùसि प्रसीद, स्व स्थानं गच्छ), लेकिन लक्ष्मी को सभी अपने पास ही रहने का आग्रह करते हैं (मयि रमस्व).
मॉरीशस में एक सुबह हम पति-पत्नी समुद्र-तट पर घूम रहे थे कि कुछ स्त्रियां घेरा बना कर पूजा करती दिखीं. सभी बॉब कट और स्कर्ट पहने थीं. अनुमान हुआ कि ईसाई महिलाएं हैं, किंतु नजदीक जाने पर ‘सत्तनरायन भगवान’ शब्द कान में पड़ा. सनातन संस्कार ने हम दोनों के पांव छान लिये. हमलोग वहीं रेत पर बैठ समुद्र की लहरों को निहारने लगे. श्रीमतीजी साड़ी पहने थीं, इसलिए उन्हें यह समझते देर नहीं लगी कि हम भारत से आये हैं. वे दोने में प्रसाद लेकर पास आयीं और सहज आत्मीयता से बोलीं, ‘लेईं, भगवान के परसाद.’ मैंने कृतज्ञतापूर्वक उसे स्वीकारते हुए पूछा- ‘आज कौनो खास बात रहे का?’ वे बोली ‘आज पुन्नमासी रहे न. आप भुला गैलीं?’ मैं निरुत्तर था, क्योंकि हम सौरमास और चंद्रमास से कोसों दूर ग्रेगेरियन कैलेंडर के दास हो गये हैं. हमारे मोबाइल में दुनिया भर की सूचना रहती है, पर भारतीय तिथियों की नहीं. बहरहाल, हम दोनों के भोजपुरी संवाद ने उन्हें इतना विमोहित किया कि वे अपने-अपने घर खाने पर बुलाने लगीं. यदि हमें एक मास रहना होता, तो भी हमें होटल में खाने की नौबत नहीं आती.
मुझे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदीजी की याद आ रही थी. मॉरीशस की सरकारी यात्रा से लौटने के बाद एक शाम अपने आवास के प्रांगण में वे चिरपरिचित ठहाके के साथ मॉरीशस के ग्रामीणों की आत्मीयता का वर्णन कर रहे थे. बोले- एक सप्ताह में ही मैं धवलकेशी सबका ‘बाबा’ हो गया. मैंने टिप्पणी की- ‘तो आप वहां बाबानाम केवलम् का प्रचार करने लगे.’ उन दिनों ‘जय गुरुदेव’ का बड़ा हल्ला था. मेरी बात सुन वे जोर से ठठा कर हंस पड़े. कल की उस ‘शुभ्र ज्योत्स्ना पुलकित यामिनी’ में आचार्यजी का वह मुक्त अट्टहास पसरा दिखाई दे रहा था. मेरी डायरी के पन्नों पर ये चार पंक्तियां उतर आयीं- ‘नाचती-थिरकती है, चांदनी जमीं पर ही, हमने इस हकीकत को, जाके चांद पर देखा.’