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अमलतास में फूल नहीं आये!

प्रभात रंजन कथाकार कल रघुवीर सहाय की कविता ‘अमलतास में फूल नहीं आये’ पढ़ते-पढ़ते अचानक ध्यान आया कि नयी कविता के दौर में हिंदी कविता का प्रकृति से कितना गहरा नाता था. कनेर, चंपा, बेला, गुलमुहर, रात की रानी, पारिजात न जाने कितने फूलों को हमने उस दौर की कविताओं के माध्यम से पहचाना था. […]

प्रभात रंजन

कथाकार

कल रघुवीर सहाय की कविता ‘अमलतास में फूल नहीं आये’ पढ़ते-पढ़ते अचानक ध्यान आया कि नयी कविता के दौर में हिंदी कविता का प्रकृति से कितना गहरा नाता था. कनेर, चंपा, बेला, गुलमुहर, रात की रानी, पारिजात न जाने कितने फूलों को हमने उस दौर की कविताओं के माध्यम से पहचाना था. धर्मवीर भारती के उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ में तो बोगनवेलिया का ऐसा वर्णन है कि अपने स्कूली दिनों में हम बोगनवेलिया पर रीझ-रीझ जाते थे. कविता तब प्रकृति के सहचर की तरह लगती थी. सिर्फ फूल ही नहीं रंग भी.

जब मैंने पहली बार धर्मवीर भारती की कविता पढ़ी थी- ‘इन फिरोजी होंठों पर बर्बाद मेरी जिंदगी’, तो बहुत दिन इसी उधेड़बुन में बीते थे कि फिरोजी रंग होता कैसा है. जब यह पता चला, तो फिर इस उधेड़बुन में बीते कि अगर वह रंग वैसा होता है, तो होंठ उस रंग के कैसे हो सकते हैं. एक काव्य पंक्ति आज तक मन में गूंजती रहती है- ‘जैसे कोहरे में डूबी हो रंगीन गुलाबों की घाटी’. यह बात बाद में समझ आयी कि छायावाद दौर की कविताओं में प्रकृति का मानवीकरण किया गया, लेकिन उसके बाद 60-70 के दशक की कविताओं में, रघुवीर सहाय, शमशेर बहादुर सिंह, नरेश मेहता, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, धर्मवीर भारती आदि कवि उसे मानव जीवन के प्रसंगों से जोड़ने लगे, प्रेम और जुदाई से, उल्लास और दर्द से जोड़ने लगे.

आजकल इन कविताओं, कविताओं के इन प्रसंगों की बार-बार याद आ रही है. इसका कारण यह है कि समकालीन कविता प्रकृति से बेहद दूर हो गयी है. उसमें प्रकृति के सूक्ष्म बदलाव नहीं दिखाई देते. नयी कविता के दौर में प्रकृति और बादल पर ही न जाने कितनी कविताएं लिखी गयीं. रघुवीर सहाय की कविता है- ‘मन में पानी के अनेक संस्मरण हैं’ या नागार्जुन की यह अविस्मरणीय कविता- ‘अमल धवल गिरि के शिखरों पर बादल को घिरते देखा है.’

कोई संदेह नहीं कि विचारों के मामले में, प्रतिरोध के अर्थ में आज कविता अधिक सघन हुई है. पर उसमें वह ऐंद्रिकता विरल होती गयी है, जिसने एक दौर तक हिंदी कविता को अपनी प्रकृति-परिवेश से जोड़े रखा था. उत्तर आधुनिकता कहती है कि साहित्य समाज का दर्पण नहीं होता.

लेकिन समकालीन कविताओं को पढ़ते हुए इस सचाई से रूबरू होना पड़ता है कि पिछले करीब 25 साल के विस्थापन ने हमें अपनी जड़ों से दूर कर दिया है, ऐसी परिस्थिति में ला दिया है, जिसमें चारों तरफ कंक्रीट की अट्टालिकाएं दिखाई देती हैं. हम सूचना, ज्ञान के मामले में संपन्न जरूर हुए हैं, लेकिन जाने-अनजाने हमारे जीवन से प्रकृति का विस्थापन हो गया है. प्रकृति के जो उपादान हमारी भावनाओं के आलंबन-उद्दीपन बन कर कविताओं के माध्यम से अभिव्यक्त होते थे, धीरे-धीरे काव्य जगत से कूच कर गये हैं.

अफसोस है कि इसका कोई मलाल भी आज के साहित्य में नहीं दिखाई देता है. एक दौर ऐसा था कि कवि फूल के रूप-रंग पर सिर्फ रीझता ही नहीं था, बल्कि उसके न खिलने पर चिंतित भी हो जाता था- अमलतास में फूल नहीं आये!

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