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नेपाल के बहाने सेक्युलर-संवाद
प्रमोद जोशी वरिष्ठ पत्रकार नेपाल में संविधान सभा की पुष्टि के बाद धर्म-निरपेक्षता शब्द चर्चा का विषय बन गया है. खासतौर से भारत में यह एक राजनीतिक अवधारणा के रूप में सामने आ रहा है. उदार, अनुदार, प्रगतिशील, प्रतिक्रियावादी जैसे शब्द हमारे यहां पश्चिम से आये हैं. इनमें धर्म-निरपेक्षता की अवधारणा भी शामिल है, जिसे […]
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
नेपाल में संविधान सभा की पुष्टि के बाद धर्म-निरपेक्षता शब्द चर्चा का विषय बन गया है. खासतौर से भारत में यह एक राजनीतिक अवधारणा के रूप में सामने आ रहा है. उदार, अनुदार, प्रगतिशील, प्रतिक्रियावादी जैसे शब्द हमारे यहां पश्चिम से आये हैं. इनमें धर्म-निरपेक्षता की अवधारणा भी शामिल है, जिसे लेकर समूचे दक्षिण एशिया में भ्रम की स्थिति है.
भारतीय राजनीति में इसे गैर-हिंदू (गैर-सांप्रदायिक) अवधारणा के रूप में पेश किया जाता है, वहीं दूसरी ओर इसे मुसलिम परस्त, छद्म विचार के रूप में पेश किया जाता है. कुछ लोग मानते हैं कि भारत की धार्मिक बहुलता को देखते हुए धर्म-निरपेक्षता अनिवार्यता है. पर धर्म-निरपेक्षता को केवल सामाजिक संतुलनकारी विचार मानने से उसका मतलब अधूरा रह जाता है. इसे सर्वधर्म-समभाव तक सीमित करना इसके अर्थ को संकुचित बनाता है.
भारत के मुसलमान धर्म-निरपेक्ष राजनीति के पक्षधर हैं, वहीं पाकिस्तान और बांग्लादेश में धर्म-निरपेक्षता को नास्तिकता का समानार्थी माना जाता है. भाजपा इसे ‘छद्म धर्म-निरपेक्षता’ कहती है.
नेपाल की संविधान सभा ने सर्वानुमति से देश को धर्म-निरपेक्ष घोषित कर तो दिया है, पर लगता है कि वहां के राजनीतिक दल जनता को इसका मर्म समझाने में नाकामयाब रहे हैं. वहां की राजनीति एक हद तक भारतीय राजनीति के प्रभाव में रहती है. इसीलिए वहां के मुख्य दलों ने धर्मनिरपेक्ष राज्य-व्यवस्था का समर्थन किया है. यदि वहां के संविधान में धर्म-निरपेक्षता शब्द नहीं होता, तो क्या होता?
भारत में 1976 में 42वें संविधान संशोधन के मार्फत संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद और धर्म-निरपेक्षता शब्द जोड़े गये. इसका मतलब यह नहीं कि 1947 से 1976 तक हमारी व्यवस्था धर्म-निरपेक्ष नहीं थी. संविधान संशोधन आपतकाल के दौरान किया गया था.
1977 में हमारे देश में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद संविधान के 43वें और 44वें संविधान संशोधनों के मार्फत तमाम बातें बदली गयीं, पर धर्म-निरपेक्षता और समाजवाद शब्द नहीं बदले गये. बावजूद इसके हमने इन शब्दों के अर्थ पर गहराई से कभी विचार नहीं किया.
नेपाल में केवल धर्म-निरपेक्ष शब्द को हटाने की मांग क्यों की गयी थी? जनता के मन में डर पैदा किया गया कि धर्म-निरपेक्षता का मतलब नास्तिकता है. इसलिए संविधान में हिंदू शब्द जोड़ने की मांग की गयी. इसका फायदा उठा कर वहां राजशाही को पुनर्स्थापित करनेवाली ताकतों का एजेंडा भी सामने आया है.
संविधान सभा के फैसले के बाद वहां धर्म-निरपेक्ष शब्द को लेकर चल रही बहस खत्म नहीं होगी. पर स्वस्थ बहस के लिए जरूरी है सामाजिक जागरूकता. जागरूकता के अभाव में भावनाएं भड़कने का मौका बना रहता है.
सोमवार को संविधान सभा के इस निर्णय की जानकारी बाहर आने के बाद काठमांडो की सड़कों पर भगवा झंडों के साथ जुलूस निकाले गये. देश के संघीय स्वरूप को लेकर तराई में मधेशी समुदाय का आंदोलन पहले से चल रहा है.
हिंदूवादी राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक पार्टी-नेपाल के अध्यक्ष कमल थापा ने संविधान सभा में नेपाल को हिंदू राष्ट्र फिर से बनाने की मांग को लेकर अनुच्छेद चार में संशोधन का प्रस्ताव दिया था. 601 सदस्यों की सभा में इसे जरूरी 10 फीसदी मत नहीं मिले. पर लगता है कि धर्म-निरपेक्षता को हिंदू-विरोधी अवधारणा साबित करनेवालों को भी सफलता मिल रही है. देश के संघीय ढांचे को लेकर पहले से आंदोलन चल रहा है.
नेपाल एकमात्र राजनीतिक सत्ताहै, जहां सवर्ण हिंदू संख्या में आबादी के करीब एक तिहाई हैं. आम जीवन पर वहां हिंदू धर्म गहरा प्रभाव है. वहां किसी को अपनी हिंदू पहचान प्रदर्शित करने में हिचक नहीं होती. लोग अंगरेजी तारीखों का नहीं, हिंदू पंचांग की तिथियों का इस्तेमाल करते हैं.
वहां साप्ताहिक छुट्टी का दिन रविवार नहीं होकर शनिवार होता है. ज्यादातर सार्वजनिक अवकाश हिंदू त्यौहारों पर होते हैं. जीवनशैली पूरी तरह हिंदू है. सरकारी विभाग नियमित रूप से मंदिरों और पारंपरिक अनुष्ठानों के लिए बजट जारी करते हैं. बावजूद इसके वहां हिंदूवादी राजनीति नहीं है. इसका बड़ा कारण यह है कि समाज में बड़े स्तर पर धार्मिक बहुलता नहीं है.
फिलहाल हमें इंतजार करना होगा कि संविधान सभा के फैसले पर जनता की प्रतिक्रिया किस प्रकार की है. नेपाल में लोग धार्मिक स्वतंत्रता का मतलब धर्म को मानने की स्वतंत्रता तक ही सीमित रखते हैं. प्रचार की कामना या धर्मांतरण को लेकर बहस नहीं है, जो भारत में है.
भारतीय संविधान के निर्माण के वक्त भी यह सवाल उठा था, और प्रचार शब्द को लेकर संविधान सभा में काफी बहस भी हुई थी, लेकिन इसे हटाया नहीं गया.
इतने भारी बहुमत से धर्म-निरपेक्ष व्यवस्था को स्वीकृति मिल जाने के बावजूद राजनीतिक दल मानते हैं कि जनता को हिंदू शब्द से मोह है. माओवादी नेता पुष्पदहल कमल प्रचंड ने कुछ महीने पहले माना था कि नये संविधान को अंतिम रूप देते समय धर्म-निरपेक्ष शब्द को बदलने का विचार चल रहा है, क्योंकि यह आम लोगों की भावनाओं को आहत करता है.
प्रचंड ने कहा, हमने लोगों की राय लेने के दौरान पाया कि लोग धर्म-निरपेक्षता शब्द के इस्तेमाल से बहुत आहत हैं. जुलाई में जनमत संग्रह के दौरान ज्यादातर नेपाल-वासियों ने संविधान में ‘धर्म-निरपेक्षता’ के बजाय ‘हिंदू’ अथवा ‘धार्मिक स्वतंत्रता’ शब्द को शामिल करने को तरजीह दी थी.
धर्म-निरपेक्षता राजनीतिक अवधारणा है. पर यह केवल राजनीतिक दर्शन नहीं है. यह सामाजिक परिघटना भी है, जिसमें व्यक्ति के जीवन का केंद्रीय विषय धर्म नहीं रहता. भले ही व्यक्ति आस्तिक हो. धार्मिकता की जगह वैज्ञानिकता और आधुनिकता लेती है. दुनिया के सारे धर्म अपने-अपने वक्त में नैतिकता और मानवीयता का संदेश लेकर आये थे, पर समय बदल रहा है.
इसलिए सामाजिक जीवन में इन मानवीय अनुभवों को केंद्रीय स्थान मिलना चाहिए. दूसरी ओर धार्मिकता अंध-विश्वास के रूप में सामने आ रही है. प्रमाण हैं नित नये पैदा होते स्वामी और महात्मा. आधुनिकता आपको निरीश्वरवादी बनने को नहीं, विवेकशील बनने को कहती है.
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