क्षमा शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
अकसर दूसरे शहरों, गांवों से आये मध्यवर्ग और साहित्यकार किस्म के लोग िदल्ली को बेरुखी से भरा शहर कहते हैं. लेकिन यह ऐसा शहर है, जो दूर-दराज के क्षेत्रों से आये गरीब लोगों को बांहें फैला कर अपने में समेट लेता है. उन्हें रोजी-रोटी कमाने का मौका देता है.
पिछले 40 वर्षों में मैंने ऐसे कितने लोगों को देखा है, जो पहले अकेले आये. फिर पत्नी, बच्चों को लाये. उसके बाद परिवार के अन्य सदस्यों का आना शुरू हुआ. ये एक बार आये, तो यहीं के होकर रह गये.
इन सबने पैसे न होने के कारण इतने प्रकार की मुसीबत और अपमान सहा होता है कि ये पैसे के महत्व को अच्छी तरह से जानते हैं.
सड़क के किनारे कोई कुछ भी बेचने लगता है. सत्तू से लेकर परांठे, भेलपूरी, नारियल पानी, मोजे, रूमाल, मोबाइल कवर. इनकी इतनी आय हो जाती है कि अपने परिवार का पेट भर सकें. अनेक परिवार ऐसे भी नजर आये, जिन्होंने अपने बच्चों को अच्छी तरह से पढ़ाया-लिखाया और आज वे बहुत अच्छी जगहों पर काम करते हैं.
लेकिन इन लोगों में हर परिस्थति से जूझने का जो साहस और मेहनत की जो कुव्वत होती है, उसे देख कर आश्चर्य भी होता है. इन्हें सलाम करने का मन करता है.
कुछ साल पहले मेरे मोहल्ले में एक परिवार आया था- पति-पत्नी और उनके छोटे-छोटे तीन बच्चे. जल्दी ही वह फुटपाथ पर कपड़े प्रेस करने का काम करने लगा. पत्नी भी उसका हाथ बंटाने लगी. बच्चे घरों से कपड़े इकट्ठे करके ले जाने लगे. स्कूल की शाम की शिफ्ट में वे पढ़ने जाने लगे. पति-पत्नी और बच्चे इतने सुंदर थे कि सब देखते रह जाते. धीरे-धीरे कई साल बीत गये. बच्चे बड़े होने लगे. सबसे बड़ा बेटा नवीं में पढ़ने लगा.
उसकी लंबाई बढ़ गई, मूंछें निकल आयीं, मगर चेहरे का भोलापन ज्यों का त्यों था.एक शाम मैं मेट्रो से उतर कर घर की तरफ आ रही थी कि मैंने इसी लड़के को एक रेहड़ी पर खड़े देखा. रेहड़ी पर भुट्टे लदे थे. वह भुट्टा भून रहा था. मैंने कहा-अरे तू भुट्टे बेचने लगा, पढ़ना छोड़ दिया? उसने कहा- नहीं आंटी. अभी तो मेरी छुट्टियां चल रही हैं. जब अमीर और उच्च मध्यवर्ग के बच्चे समर कैंप में जाते हैं, तब इस बच्चे ने सोचा कि छुट्टियों में क्यों न कुछ पैसा कमा ले.
हो सकता है इस पैसे से वह अपनी आगे की पढ़ाई के लिए किताबें खरीदे. या कपड़े सिलवाये या माता-पिता की मदद करे. इन लोगों के फुटपाथ पर रेहड़ी लगाने से वहां से गुजरनेवाले लोगों को उनकी आम जरूरत की चीजें मिल जाती हैं. काॅरपोरेट में इन दिनों ‘मल्टी टास्किंग’ शब्द बहुत प्रयोग होता है. लोगों से कहा जाता है कि आज का जमाना एक काम से चिपके रहने का नहीं, बल्कि एक ही आदमी को कई तरीके के काम आने चाहिए. इसकी ट्रेनिंग पर करोड़ों रुपये खर्च किये जाते हैं.
अगर ‘मल्टी टास्किंग’ सीखनी हो, तो सड़क किनारे बैठे इन लोगों से सीखनी चाहिए. जैसे कि मुंबई के डिब्बे वालों को आइआइएम अहमदाबाद ने भाषण देने के लिए बुलाया था. इनका व्यावहारिक ज्ञान भी बहुत कुछ सिखा सकता है, जिसे इन्होंने अपने रोजमर्रा के अनुभव से सीखा है, किसी पाठशाला में जाकर नहीं.