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बड़ी मंदी की आहट

दूरंदेसी जान लेते हैं कि कुछ अघट घटनेवाला है. वे वक्त रहते चेताया भी करते हैं, लेकिन समय रहते चेत जाना मनुष्यता के स्वभाव में होता, तो फिर यह कहावत ही क्यों बनती कि इतिहास अपने को दोहराता है? हफ्ते की शुरुआत में प्रमुख देशों के शेयरबाजारों ने जो गोता लगाया, वह एक अनागत वैश्विक […]

दूरंदेसी जान लेते हैं कि कुछ अघट घटनेवाला है. वे वक्त रहते चेताया भी करते हैं, लेकिन समय रहते चेत जाना मनुष्यता के स्वभाव में होता, तो फिर यह कहावत ही क्यों बनती कि इतिहास अपने को दोहराता है?

हफ्ते की शुरुआत में प्रमुख देशों के शेयरबाजारों ने जो गोता लगाया, वह एक अनागत वैश्विक मंदी की शुरुआती आहटों में एक है. कर्ज में डूबा यूरोप, शून्य वृद्धि दर से आगे न हिलनेवाला जापान, और 2008 की मंदी से उबरने की भरपूर कोशिशों के बावजूद ढाई प्रतिशत की सालाना वृद्धि दर को तरस रहे अमेरिका के उदाहरण को देख कर रिजर्व बैंक के दूरंदेस गवर्नर रघुराम राजन ने जून में लंदन बिजनेस स्कूल के अपने भाषण में चेताया था कि विश्व में फिर से 1930 की महामंदी के से आसार बन रहे हैं. उस वक्त राजन की चेतावनी को उदारीकरण के भीतर इतिहास के अंतिम लक्ष्य को पूरा होता देखने के हामी अर्थशास्त्रियों ने आंखें टेढ़ी करके देखा था.

भारतीय रिजर्व बैंक को स्पष्टीकरण जारी करना पड़ा कि डॉ राजन महामंदी की भविष्यवाणी करके निवेशकों को हतोत्साहित नहीं कर रहे, बल्कि विश्व में जारी एक खास आर्थिक चलन का उल्लेख कर रहे हैं. वे कह रहे हैं कि 1930 के दौर में ताकतवर अर्थव्यवस्थाओं ने जिस तरह की नीति अपनायी, कमोबेश वैसी ही नीति अब भी अपनायी जा रही है.

ताकतवर अर्थव्यवस्था वाले मुल्क जान-बूझ कर अपनी मुद्रा को कमजोर रखना चाहते हैं, ताकि निर्यात के मामले में प्रतिस्पर्धी देशों से आगे रहें और अपने प्रतिस्पर्धी को एकदम से कंगाल कर देने की यही नीति विश्व भर में आर्थिक संकट के हालात पैदा कर सकती है.

लंदन बिजनेस स्कूल के अपने भाषण में राजन ने साफ कहा था कि हम अब आर्थिक वृद्धि पैदा नहीं कर रहे, बल्कि एक जगह की आर्थिक वृद्धि को दूसरी जगह पहुंचा भर रहे हैं.

राजन की बातों पर ऐतराज जतानेवाले इस बात की अनदेखी कर रहे थे कि यह बात उन्होंने किसी राष्ट्र के प्रतिनिधि के रूप में नहीं, बल्कि एक अर्थशास्त्री की हैसियत से कही थी और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री के रूप में यह रघुराम राजन ही थे, जिन्होंने 2008 की मंदी की आहट को समय रहते भांप लिया था.

सोमवार को दुनिया भर के स्टॉक्स एक्सचेंज में मची हाय-तौबा में कोई चाहे तो राजन की चेतावनी की अनुगूंजों को सच होते देख सकता है. सभी कह रहे कि शेयर बाजारों का धराशायी होना चीन की आर्थिक चिंताओं से जुड़ा है.

चीन के सेंट्रल बैंक ने हाल ही में अपनी मुद्रा युआन का अवमूल्यन किया. अवमूल्यन के पीछे तर्क था कि इससे बाजार-केंद्रित गतिविधियों को तेज करने में मदद मिलेगी. असल में, युआन का अवमूल्यन करना चीन की मजबूरी थी.

वहां की अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी हो चली है. बरसों 10 फीसदी से ज्यादा की रफ्तार से चली चीन की अर्थव्यवस्था फिलहाल 7 फीसदी की वृद्धि दर पर अटकी है और अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि इसके आगे एक सुनिश्चित ढलान है.

चीन का निर्यात और घरेलू बाजार थम रहा है. बिके हुए फ्लैट्स या तो खाली पड़े हैं या फिर तैयार होकर बेचे जाने के इंतजार में हैं.

ऑटो इंडस्ट्री और मोबाइल फोन का चीनी बाजार 4 से 5 प्रतिशत की गिरावट पर है और इसकी चिंता में ही चीन ने अपनी मुद्रा का अवमूल्यन किया, ताकि निर्यात की प्रतिस्पर्धा में उसके सामान की विश्व बाजार में खरीद बढ़े. चीन की इस चिंता ने ही पूरी दुनिया के निवेशकों के उत्साह पर पानी फेरा. विश्व के तेल बाजार को लगा कि चीन की अर्थव्यवस्था के मंद पड़ते ही तेल की मांग में कमी पड़ेगी और कीमतें गिरीं. इन दो बातों का असर भारतीय रुपये पर भी देखा जा सकता है.

लेकिन, विश्व-बाजार में चीजों की मांग सिर्फ मुद्रा के अवमूल्यन से निर्धारित नहीं होती. उसकी एक बड़ी शर्त है उपभोग के लिए लोगों के हाथ में पर्याप्त धन होना.

मॉनसून की अनिश्चितता के बीच और आर्थिक सुधारों की मंद पड़ती गति को भांप वैश्विक क्रेडिट रैंकिंग एजेंसी मूडी ने भारत की वृद्धि-दर संबंधी अपने आकलन को घटाया है, तो इसी कारण कि खेतीबाड़ी के आसरे रहनेवाले वृहत्तर भारतीय समाज में बाजार का बढ़ना बहुत कुछ इससे तय होता है कि खेतिहर समाज के हाथ में खर्च करने लायक मुद्रा कितनी है.

दूसरी बात, निर्यातोन्मुख अर्थव्यवस्थाओं ने सुनिश्चित किया है कि सेवाओं और सामानों का उत्पादन तो विशाल पैमाने पर हो, लेकिन लागत हमेशा कम रहे. अचरज नहीं कि विकसित और विकासशील मुल्क दोनों बढ़ती बेरोजगारी से परेशान हैं.

मसलन, सेवा क्षेत्र की बढ़त पर आश्रित हो रही भारतीय अर्थव्यवस्था विनिर्माण के मामले में पिछड़ रही है और हालत यह है कि जिन सालों को आर्थिक वृद्धि के साल कहा जाता है, उन्हीं सालों में भारत में 50 लाख लोगों ने नौकरियां खोयीं.

अब हमें तय करना है कि हम विश्व-बाजार के नियंता देश, जिसमें मुख्य रूप से यूरोप, अमेरिका और चीन शामिल हैं, को फॉलो करते रहें या अपने लिए एक दूरदर्शितापूर्ण राह तलाशें.

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