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कामकाजी मां होने का खामियाजा

कंचन सिंह पत्रकार तीन साल का लंबा सफर जैसे पलक झपकते ही बीत गया. लगता है कल ही की तो बात थी, जब मैं अपनी नन्हीं सी बेटी को गोद में उठाये उसकी मासूम मुस्कान पर मोहित होती रहती थी. उसे पिछले दिनों पहली बार स्कूल भेजते समय ऐसा महसूस हुआ, जैसे मैंने उसका बचपन […]

कंचन सिंह

पत्रकार

तीन साल का लंबा सफर जैसे पलक झपकते ही बीत गया. लगता है कल ही की तो बात थी, जब मैं अपनी नन्हीं सी बेटी को गोद में उठाये उसकी मासूम मुस्कान पर मोहित होती रहती थी.

उसे पिछले दिनों पहली बार स्कूल भेजते समय ऐसा महसूस हुआ, जैसे मैंने उसका बचपन ठीक से देखा भी नहीं और जिया भी नहीं. मेरी गुड़िया कब इतनी बड़ी हो गयी, पता ही नहीं चला. वह सिर्फ तीन महीने की ही थी, जब मैंने दोबारा नौकरी ज्वॉइन कर ली थी. बड़ी कशमकश के बाद दिल को समझाया कि यूं ममता की रौ में बहने से काम नहीं चलेगा, बेटी को अच्छी परवरिश देनी है, तो आर्थिक रूप से मजबूती जरूरी है.

मेरी बेटी अपनी दादी के हाथों स्नेह-दुलार में जरूर पलती रही, लेकिन मैं उसके नन्हें कदमों की पहली आहट, उसका वो लड़खड़ा कर चलना, सब मिस करती रही. जब कभी दूसरी मांओं के मुंह से सुनती हूं कि मेरी बेटी ने पहला शब्द फलां कहा था, वह इतने महीने में चलने लगी थी, तब एहसास होता है कि मैंने कितने अनमोल पल खो दिये. इस मशीनी दुनिया में कामकाजी मांएं भी मशीन ही हो जाती हैं.

सुबह उठ कर घर के काम निपटा कर बच्चे को तैयार कर जल्दी-जल्दी नाश्ता करवाना, उसके जिद करने, आनाकानी करने पर बार-बार यह दुहाई देना-बेटा ममा को ऑफिस के लिए देर हो जायेगी, जल्दी से खा लो राजा बेटा, शाम को ममा आपके लिए चॉकलेट और खिलौने लायेगी..

अपनी ममता को चॉकलेट और खिलौने के तराजू में तौलना मां की मजबूरी है और इसके एवज में उसे ताने भी सुनने पड़ते हैं कि तुम बच्चे को बिगाड़ रही हो! उसके पास इतना वक्त भी नहीं रहता कि अपने जिगर के टुकड़े को दुलार ले. ऑफिस का कंप्यूटर और फाइलें उसकी राह जो तक रहा होता है.

आखिर किसे दोष दें? नौकरी करने का फैसला भी तो उसका अपना ही है, आत्मनिर्भर बनने का सपना.

इन सबके बीच वर्किग वुमन मां अपने दिल को कैसे संभालती हैं, किसी को क्या पता. घर और ऑफिस के बीच संतुलन की चाहे जितनी बातें कर ली जायें, मगर यह एक कड़वा सच है कि कामकाजी मांएं अपने बच्चों का बचपन नहीं देख पातीं. बच्चे को मां का प्यार-दुलार मिलता है, मगर किस्तों में.

स्कूल से आने के बाद उन्हें अपनी मां के हाथ का खाना नसीब नहीं होता, हां फोन करके मां हाल-चाल जरूर पूछ लेती है. शाम को मां उसके साथ खेल नहीं सकती, उसे रोज घुमाने नहीं ले जा सकती, यहां तक कि उसके स्कूल के किस्से सुनने के लिए भी मां के पास वक्त नहीं रहता. कभी-कभी अपनी इस बेबसी पर मां का दिल रोता भी है. अपनी मासूम बेटी की आंखों में मेरे लिए शिकायत को कई बार मैंने भी महसूस किया है, मगर चाह कर भी उसे दूर नहीं कर सकती.

वर्किग होने का खामियाजा मां की ममता से समझौते के रूप में भुगतना पड़ता है. आज सुबह ऑफिस के लिए निकलते वक्त बेटी ने फिर पूछा, ममा आप मुङो स्कूल से लेने आओगे न? उसके इस मासूम सवाल का मुस्कुरा कर जवाब देकर, उसके माथे को चूम कर मैं बस घर से निकल गयी और मां के मन में फिर कशमकश चलने लगी.

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