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‘बस संस्कृति’ अपनाने में समझदारी

पेट्रोलियम आयात खर्च में सालाना पांच अरब डॉलर की बचत के लिए इन दिनों राष्ट्रीय ईंधन संरक्षण अभियान चलाया जा रहा है. इसमें सर्वाधिक जोर सार्वजनिक परिवहन के इस्तेमाल पर दिया जा रहा है. खुद पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली ने तय किया है कि वे हफ्ते में एक दिन सार्वजनिक परिवहन के साधनों से यात्रा […]

पेट्रोलियम आयात खर्च में सालाना पांच अरब डॉलर की बचत के लिए इन दिनों राष्ट्रीय ईंधन संरक्षण अभियान चलाया जा रहा है. इसमें सर्वाधिक जोर सार्वजनिक परिवहन के इस्तेमाल पर दिया जा रहा है. खुद पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली ने तय किया है कि वे हफ्ते में एक दिन सार्वजनिक परिवहन के साधनों से यात्रा करेंगे. उन्होंने मुख्यमंत्रियों,केंद्रीय मंत्रालयों और सार्वजनिक उपक्र मों के प्रमुखों से हफ्ते में एक दिन ‘बस दिवस’ घोषित करने को कहा है ताकि उस दिन कर्मचारियों को यात्रा के लिए सिर्फ सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके. पेट्रोलियम पदार्थो के आयात के कारण बढ़ते चालू खाता घाटा, बढ़ता प्रदूषण, सड़कों पर वाहनों की भीड़ आदि को देखें तो मोइली की सलाह काबिलेतारीफ है. भले ही सरकार सार्वजनिक परिवहन के इस्तेमाल के लिए बढ़ावा देने का अभियान चला रही रही हो, लेकिन सार्वजनिक परिवहन की दशा सुधारने पर किसी का बल नहीं है.

जमीनी सच्चाई यह है कि सार्वजनिक परिवहन तंत्र की हालत खस्ता है. देश के पांच हजार छोटे-बड़े शहरों में से महज एक प्रतिशत शहरों में सार्वजनिक परिवहन की व्यवस्था है. इसी का नतीजा है कि जो बसें कभी सार्वजनिक परिवहन का अहम हिस्सा होती थीं, वे आज स्कूली बच्चों और पर्यटकों को ढोने भर तक सिमट चुकी हैं. दरअसल सार्वजनिक परिवहन को तभी बढ़ावा मिलेगा जब हम बस संस्कृति को फिर से अपनायें. यह तभी संभव होगा जब बसों की संख्या बढ़ायी जायेगी. इसके साथ ही उन्हें समयबद्ध और अधिक आरामदायक बनाना होगा. महिलाओं और बच्चों के लिए अलग व्यवस्था की जानी चाहिए, ताकि वे खुद को सुरक्षित महसूस कर सकें . रमेश दुबे, इ-मेल से

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