।।राजीव वोरा।।
(गांधीवादी चिंतक)
‘हिंद स्वराज’ गांधीजी का वह बीज ग्रंथ है, जो उन्होंने 1909 में यह स्पष्ट करने के लिए लिखा कि मनुष्य की स्वाधीनता का सही अर्थ क्या है और उसे कैसे प्राप्त किया जाना चाहिए. हिंद स्वराज के 90 पन्नों में अपना और भारत का जीवन दर्शन रखते हुए उसकी अंतिम पक्तियों में गांधी ने लिखा- ‘मुझे लगता है कि हमने स्वराज्य का नाम तो लिया, लेकिन उसका स्वरूप हम नहीं समझे हैं. मैंने उसे जैसा समझा वैसा यहां बताने की कोशिश की है. मेरा मन गवाही देता है कि ऐसा स्वराज्य पाने के लिए मेरा यह शरीर समर्पित है.’ जब गांधीजी ‘हिन्द स्वराज’ के मार्ग पर चले तब कायर हो चुके, हारे हुए और मृत-प्राय भारत ने वह कर दिखाया, जो मानव इतिहास में कभी नहीं हुआ. भारतीयों के मन में स्वराज की लौ जगायी और तब क्या हुआ वह इतिहास हम सब जानते हैं. अगर हमें फिर से उठना है और अपनी असलियत, अपनी अस्मिता को प्राप्त करना है, तो ‘हिंद स्वराज’ को हमें फिर से समझने की जरूरत है.
आज देश के चार आधारभूत तंत्र अर्थात् राज्यतंत्र, अर्थतंत्र, समाजतंत्र और धर्मतंत्र की क्या स्थिति है? ये चारों के चार जब प्रजा के जीवन को सरल और सुखमय बनाने के बजाय उसे कठिन और कष्टमय बनाने लगे; समस्याओं को समाधान करने के बदले उन्हें उलझाने लगे; देश की प्राकृतिक संपदा तथा प्रजा के साधन, श्रम और कौशल का मूल्य बढ़ाने के बदले दिन-ब-दिन घटाने ही लगें और विदेशी साधन-शक्ति और मुद्रा का मूल्य घटाने के बदले उसे ही बढ़ाने लगे; धार्मिक, पांथिक, सांप्रदायिक, नस्लीय, जातीय, प्रादेशिक, भाषाई, मतवादी और वैचारिक भिन्नता में अभिन्नता के स्थान पर भेदभाव पैदा करने लगे; जिनकी रक्षा करने का दायित्व सर्वोपरि है उन्हीं शोषित, अशक्त, गरीब और मूक को ही अपना भक्ष्य बनाने लगे; गरीब से गरीब व्यक्ति को भी अपना लगे, ऐसे राजतंत्र और अर्थतंत्र के स्थान पर जो केवल सबलों को ही अपना लगे ऐसे राज्यतंत्र और अर्थतंत्र की सेवा को ही राष्ट्र सेवा कहा जाने लगे; स्वाधीनता और आत्मनिर्भरता के स्थान पर पराधीनता तथा परनिर्भरता बढ़ानेवालों का मान-सम्मान-स्वागत होने लगे; अंधेरे से प्रकाश की ओर जाने के बदले प्रकाश से अंधकार और घोर अंधकार की तरफ देश को धकेले जाने को जोर-जबरदस्ती से प्रगति बताया जाने लगे; अंगरेजी पढ़े-लिखों ने और समर्थो ने शोषण के लिए स्वदेश और भक्ति के लिए विदेश उठा लिया हो; तथा इस स्थिति को भुगतती प्रजा जब स्पष्ट रास्ता न दिखने पर झुंझलाने लगे, आपस में ही लड़ने और बिखरने लगे, आत्मनाश के आर्थिक, राजनीतिक तथा बौद्धिक तंत्र में अपनी शिरकत को ही देश की प्रगति या परिवर्तन समझने और बताने लगे; राष्ट्रीय भावना मंद पड़ने लगे और स्वदेशी की तुलना में विदेशी का प्रेम बढ़ने लगे; तब, दिशा खोजने के लिए फिर से मूलभूत सिद्धांतों और दृष्टि को उठाना ही एक मात्र रास्ता बच जाता है, जो हमें एक समग्र जीवन-दृष्टि दे, ताकि सभ्यता के सच्चे दर्शन के आधार पर अपने दायित्व के सूत्र हाथ लग सकें और विनाश से बचाव का मार्ग दिखे. मूलभूत सिद्धांत और दृष्टि का अर्थ है जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में नैतिक -अनैतिक के विवेक की दृष्टि, जिससे व्यक्ति अपना सही नैतिक कर्तव्य अदा कर सके. गांधीजी ने ‘हिंद स्वराज’ में इसे ही सभ्यता कहा है और जो इसमें परिवर्तन करते हैं, उनकी गांधीजी ने कड़े शब्दों में आलोचना की है.
किसी भी प्रजा में उनकी सभ्यता अर्थात् नैतिक-बोध और नैतिक-व्यवहार की प्रेरणा देनेवाले महापुरुष समय-समय पर पैदा होते हैं. आज हमारे पास ऐसा कोई राष्ट्र-सम्मत महापुरुष नहीं है. तब, कुछ संस्थाएं होती हैं- सामाजिक, सांस्कृतिक, जातीय या धार्मिक तंत्र- जो प्रजा को प्रेरित कर सकें, संघर्षो के लिए संगठित करें और मार्गदर्शन करें. आज हमारे पास ऐसी संस्था भी नहीं है. न महापुरुष अर्थात् नेता या नायक, न प्रजा का अपना कोई संघ-संगठन. तब, जो एकमात्र आधार ऊपर उठने के लिए रह जाता है, वह है विचार या जीवन-दृष्टि. ‘हिंद स्वराज’ आज के युग में नैतिक और न्यायपूर्ण जीवन-दृष्टि का बीजग्रंथ है. वह हमें स्वाधीनता का सच्च अर्थ सिखाता है और उसे पाने का मार्ग बताता है.
जो केवल बुद्धिवाद से प्रेरित हैं, उनके लिए पूंजीवाद से लेकर साम्यवाद तक की बहुत सारी विचारधाराएं और जीवन दृष्टियां हैं, दूसरी ओर जो कोरी रूढ़ आस्था और भावना से उन्माद में आकर चलते हैं उन्हें पकड़नेवाले विचारवाद और विभिन्न प्रकार के आंदोलन भी हैं, लेकिन संपूर्ण जीवन अर्थात् जीवन के आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में न्याय और नैतिकता की स्थापना करने का न तो इनमें आंतरिक सामथ्र्य है, न सामथ्र्य का कोई प्रमाण. एक ओर सरासर अनीति और कमजोर के शोषण पर आधारित भोगप्रधान जीवन दृष्टि देनेवाला पूंजीवादी विचार है, जो व्यक्ति-स्वातंत्र्य के सपने और वादे के जोर पर टिका हुआ है, तो उसी पूंजीवाद की ही माता की कोख से ही और उसी के विरोध में पैदा हुआ समाजवादी-साम्यवादी विचार है, जो जीवन में समता और न्याय के लिए खड़ा हुआ, किंतु न्याय-स्थापना द्वेष आधारित रही- साम्यवाद ने मनुष्य की स्वाधीनता का ही हरण कर लिया. आधुनिक सभ्यता की एक संतान पूंजीवाद ने व्यक्ति की स्वाधीनता के नाम पर न्याय की हत्या की, तो दूसरे ने न्याय की स्थापना के नाम पर मनुष्य की स्वाधीनता को ही दमित कर दिया. स्वाधीनता और न्याय के बीच का टकराव इनकी मूलभूत जीवनदृष्टि में है. तथाकथित आधुनिक ‘सभ्यता’ की पैदाइश होने के कारण इन दोषों का निराकरण न तो पूंजीवाद और उसके विभिन्न रूपों के पर्यायों में है, न समाजवाद में.
दुनिया में समस्त युद्ध-झगड़े या तो न्याय के लिए या न्याय के ही एक लक्ष्य स्वाधीनता के लिए हुए हैं. ऐसी कौन-सी जीवन दृष्टि और जीवन व्यवस्था है, जिसमें न्याय और स्वाधीनता एक-दूसरे के साथ समरस हो, एक का विकास दूसरे का भी विकास हो? स्वराज वह विचार और जीवन व्यवस्था है, जिसमें न्याय और स्वाधीनता समरस और अभिन्न हैं. स्वराज खड़ा होता है स्वदेशी और आत्मनिर्भरता जैसी नींव पर, जिसमें गरीब से गरीब को, प्रत्येक नागरिक को अपना स्थान न सिर्फ दिखता है, बल्कि अपने जीवन का निर्माण करने के सूत्र उसके अधिकार में रहते हैं. गांवों की व्यवस्थित संरचना से बने हमारे समाज को हमें फिर से उस दृष्टि से देखना, समझना और संवारना पड़ेगा. गांव-समाज के बिखरने-टूटने से, उसकी एकता कमजोर होने से, गांवों और मेहनतकश गरीबों का शोषण वर्तमान तंत्र के लिए आसान बन गया है. गांधीजी ने इस शोषण से मुक्ति के लिए स्वदेशी व्यवस्था के निर्माण का मार्ग बताया.