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आखिर ये ‘अच्छे दिन’ होते क्या हैं!
समीर लाल ‘समीर’ लेखक एवं सक्रिय ब्लॉगर अच्छे दिन आनेवाले हैं! वह रोज सुनता तो था, पर दिन था कि वैसे ही निकलता रहा, जैसे पहले. कई बार तो वह सुबह जल्दी जाग जाता कि कहीं अच्छे दिन आकर लौट न जायें. देखते-सुनते और इंतजार करते पूरा बरस निकल गया. थक कर उसने सोचा कि […]
समीर लाल ‘समीर’
लेखक एवं सक्रिय ब्लॉगर
अच्छे दिन आनेवाले हैं! वह रोज सुनता तो था, पर दिन था कि वैसे ही निकलता रहा, जैसे पहले. कई बार तो वह सुबह जल्दी जाग जाता कि कहीं अच्छे दिन आकर लौट न जायें. देखते-सुनते और इंतजार करते पूरा बरस निकल गया. थक कर उसने सोचा कि स्कूल में मास्साब से पूछेगा. क्या पता, अच्छे दिन आये हों और वह पहचान ही न पाया हो. अच्छा परखने का कोई-न-कोई गुर तो होता ही होगा.
मास्साब! ये ‘अच्छा’ क्या होता है? आठवीं के उस नादान बालक ने मास्साब से पूछा. बेटा! अच्छा वो होता है जो अच्छा होता है, समङो? मास्साब ने समझाया. पर मास्साब, वही तो मैं भी पूछ रहा हूं कि अच्छा होता क्या है? मास्साब तो मास्साब! तुरंत ही नाराज हो गये कि एक तो पढ़ाई-लिखाई में तुम्हारा मन नहीं लगता, उस पर से बहस करते हो.
चलो, ऐसे समझो कि अच्छा वो होता है जो बुरा नहीं होता. तो मास्साब, बुरा क्या होता है? बालक की बाल सुलभ जिज्ञासा तो मानो महंगाई हो गयी, बढ़ती ही जा रही थी. मास्साब का गुस्सा उबाल पर था, पर एक कर्तव्य कि बच्चों की जिज्ञासा शांत करने का जिम्मा उन पर है, उन्हें बरसने से रोके हुए था. तभी उन्हें किसी ज्ञानी का ब्रrा वाक्य याद आ गया कि अगर आप किसी को कुछ समझा नहीं पा रहे हैं, तो उसे कन्फ्यूज कर दीजिये.
बस ज्ञान के इसी तिनके को थामे उन्होंने ज्ञान वितरण के सागर में फिर छलांग मारी और लगे तैरने- देखो बालक, अगर कुछ अच्छा है न, तो बताना नहीं पड़ता, खुद समझ में आ जाता है. और अगर बुरा है तो भी उसकी बुराई खुद उजागर हो जाती है. जैसे सोचो, मिठाई अच्छी है तो इसमें बताना कैसा. गोबर बुरा है तो खुद ही समझ में आ जाता है न! मास्साब अपने समझाने की कला पर मुग्द्ध थे.
लेकिन, बालक तो मानो डॉलर की कीमत हुआ हो, हाथ आने को तैयार ही नहीं- मास्साब! मेरे दादा जी को शुगर की बीमारी है और अम्मा कहती है कि उनके लिए मिठाई बुरी है. गोबर से तो हमारा आंगन रोज लीपा जाता है, दादी कहती हैं इससे स्वच्छता का वास होता है. हमारा परिवार तो इसे ‘स्वच्छता अभियान’ का हिस्सा मानता है.
मास्साब की गुस्से की लगाम अब छूटने की कगार पर थी, मगर एक कोशिश और करते हुए वो बोले- देखो बच्चे, सब मौके-मौके की बात है. कभी वो ही बात किसी के लिए अच्छी होती है, तो वो ही किसी और के लिए बुरी हो जाती है. अगर तुम सबकुछ बुरा महसूस करने की ठान लो, तो अच्छा भी बुरा ही लगेगा और अगर अच्छा महसूस करने की आदत डाल लो तो बुराई में भी अच्छाई का वास महसूस करोगे.
बालक के मुंह में जुबान न जाने कैसे फिसल गयी- अच्छा-बुरा अगर हमारे महसूस करने की कला का ही नाम है, तो कोई सरकार क्या अच्छा लाने की बात करती है और किस बुरे को बदलने की बात करती है?
और.. बालक अभी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि मास्साब के सब्र का बांध टूट पड़ा और वो अपनी बेंत लिये टूट पड़े उस बालक पर. बोल, समझ आया कि और समझाऊं? बालक कुटाई से बचने के लिए कहता रहा- समझ गया! समझ आ गया! सोचा, शायद उसमें ही फील गुड फैक्टर मिसिंग है!
(लेखक के ब्लॉग से)
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