अजय पांडेय
प्रभात खबर, गया
पिछले दिनों भूकंप-आंधी, जनता परिवार के महाविलय और गया के डॉक्टर के अपहरण की खबरों से अखबार रंगे रहे, पर यहां मैं कुछ ऐसी खबरों का जिक्र करना चाहूंगा, जिन्हें जगह भले कम मिली हो, पर वो दिल में गहरे उतर गयीं. इन खबरों में से एक भभुआ व दूसरी आरा की थी.
दोनों मामलों में बेटों ने अपने बूढ़े, असहाय मां-बाप को घर से निकाल दिया था. न्याय की गुहार लगा कर थक-हार चुके आरा के एक पिता ने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, सुप्रीम कोर्ट व जिलाधिकारी को पत्र लिख कर इच्छामृत्यु की मांग की है. भभुआ में एक बूढ़े मां-बाप डीएम के जनता दरबार में बेघर होकर निढाल पड़े थे. उनके लिए कलक्टर साहब ही आखिरी उम्मीद थे. उन बेटों का चरित्र कितना कुरूप होगा कि जिन बेटों की लंबी उम्र के लिए मां-बाप ने दिन-रात दुआ की होगी, आज उनकी वजह से वे अपनी मौत की कामना कर रहे हैं.
खुद अभावों में रह कर उनकी हर मांग पूरी की होगी. जिन कंधों पर बैठ कर बेटे ने ऊंचाई हासिल की होगी, आज जब वही कंधे झुक गये, तो बेटे ने उन्हें बेघर कर दिया. ऐसे बेटे अपना बुढ़ापा क्यों भूल रहे हैं? कुछ साल पहले एक कानून बना था कि अगर कोई बेटा अपने मां-बाप का खर्च नहीं उठाता है, तो मां-बाप उसके खिलाफ कोर्ट जा सकते हैं. तब मैं दिल्ली में था. पड़ोस के सूरी साहब से इस कानून पर चर्चा हुई, तो उन्होंने कहा- ‘बुढ़ापा पैसों का मोहताज नहीं होता. वह बचपन जैसा होता है.
इस अवस्था में विशेष देखभाल की जरूरत होती है. थोड़ी सी उपेक्षा होने पर इनसान टूट जाता है. कानून सिर्फ गुजारा भत्ता दिला सकता है, किसी को देखभाल के लिए मजबूर नहीं कर सकता. और फिर, एक बाप कुछ रुपयों के लिए अपने बेटे के खिलाफ कोर्ट कैसे जा सकता है.’ एक दिन पता चला कि उनके बेटे ने उन्हें ओल्ड एज होम में छोड़ दिया.
न तो वह कोर्ट गये और न बेटे के सामने गिड़गिड़ाये. सिर्फ इतना भर कहा, ‘अपने बेटे से कभी इसका जिक्र मत करना’. क्या ऐसे ही बेटों के पिता बनने पर कहा गया है कि वह मनुष्य पितृऋण से मुक्त हो गया. वह किस मुक्ति की व्याख्या करता है.
आज इसमें संशोधन की जरूरत है. अब लिखना चाहिए कि ऐसे बेटे पिता के लिए स्वर्ग के दरवाजे नहीं खोल सकते. पिछले दिनों पत्नी के नंबर से फोन आया. फोन रिसीव किया, तो भर्रायी आवाज में बेटे ने ‘पापाजी’ कहा. उम्र के हिसाब से वह अपनी पीड़ा नहीं बता पा रहा था. पत्नी ने बताया कि उसके पैर में चोट लग गयी है. काफी दर्द हो रहा है, लेकिन इसमें भी वह ‘पापाजी-बाबू’ की ही रट लगाये है. फोन देखते ही रोने लग रहा है.
बेटे की पीड़ा से दिन भर मैं पीड़ित रहा. एक बार तो आंखों में आंसू तक आ गये. हमारे पिता भी ऐसे ही हैं. वह आज भी हम भाइयों को छोड़ने स्टेशन तक जाने से परहेज करते हैं. वह कहते हैं-‘तुम लोगों को अपने से दूर जाते नहीं देख सकता.’