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अफगानिस्तान में बदलता परिदृश्य
प्रमोद जोशी वरिष्ठ पत्रकार अफगानिस्तान के अलावा भारत और चीन के लिए सहयोग की एक और संभावना अब नेपाल में बनेगी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसी महीने चीन की यात्रा पर जानेवाले हैं. उससे पहले अशरफ गनी के साथ बातचीत उस यात्रा को सार्थक बनाने में मददगार साबित होगी. अफगानिस्तान के राष्ट्रपति डॉ अशरफ गनी की […]
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
अफगानिस्तान के अलावा भारत और चीन के लिए सहयोग की एक और संभावना अब नेपाल में बनेगी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसी महीने चीन की यात्रा पर जानेवाले हैं. उससे पहले अशरफ गनी के साथ बातचीत उस यात्रा को सार्थक बनाने में मददगार साबित होगी.
अफगानिस्तान के राष्ट्रपति डॉ अशरफ गनी की भारत यात्रा के वक्त संयोग से दो बातें ऐसी हुई हैं जो ध्यान खींचती हैं. उन्हें सोमवार को दिन में भारत के लिए रवाना होना था. उसके कुछ समय पहले ही सैकड़ों तालिबानियों ने उत्तरी प्रांत कुंदुज में फौजी चौकियों पर हमला बोल दिया.
बड़ी संख्या में तालिबानी और सरकारी सैनिक मारे गये. वहां अतिरिक्त सेना भेजी गयी है. इस अफरातफरी में यात्रा कुछ घंटे देर से शुरू हो पायी. दूसरी ओर यह यात्रा नेपाल में आये भूकंप की पृष्ठभूमि में हो रही है. नेपाल के भूकंप का अफगानिस्तान से सीधा संबंध नहीं है, लेकिन उसके पुनर्निर्माण से है. खासतौर से भारत और चीन की भूमिका को लेकर. यह भूमिका अफगानिस्तान में भी है.
अशरफ गनी ने पिछले साल सितंबर में कार्यभार संभाला है. उनके पहले हामिद करजई भारत के अच्छे मित्र माने जाते थे, लेकिन अशरफ गनी के आने के बाद स्थितियां बदल गयी हैं.
हालांकि उन्होंने साफ-साफ कभी कुछ नहीं कहा, पर उनके व्यवहार से स्पष्ट हो गया है कि भारत और पाकिस्तान के बरक्स उनका नजरिया बदला है. पिछले साल अक्तूबर में उनकी पहली विदेश यात्रा चीन की थी. उसके बाद नवंबर में वे पाकिस्तान गये. फिर दिसंबर में ब्रिटेन. इस साल मार्च में वे सऊदी अरब और अमेरिका गये. उन्होंने पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल राहील शरीफ और आइएसआइ के प्रमुख जनरल रिजवान अख्तर को अपने यहां बुलाया. नवंबर में पाक यात्रा के दौरान वे रावलपिंडी में पाक सेना के मुख्यालय भी गये थे.
अब भारत यात्रा पर देर से आने का मतलब साफ है कि अफगानिस्तान की प्राथमिकताएं बदल रहीं हैं. पिछले साल भारत ने अफगानिस्तान में दो अरब डॉलर के सहायता पैकेज और भारत में बने तीन ‘चीतल’ हेलीकॉप्टर देने की घोषणा की थी. हालांकि अफगानिस्तान ने कई तरह के हथियारों मांगे थे, लेकिन किन्हीं कारणों से भारत ने अपने हाथ खींच लिये. सवाल है कि क्या भारत को अफगानिस्तान से अपने हाथ खींचने चाहिए या बदली हुई परिस्थितियों का सावधानी से अध्ययन करना चाहिए?
इतना साफ है कि अफगानिस्तान अब पाकिस्तान के साथ रिश्ते बिगाड़ कर नहीं रखना चाहता. इसका मतलब क्या भारत से रिश्ते बिगाड़ना है? पहली नजर में यह लगता नहीं. भारत यात्रा के ठीक पहले अशरफ गनी ने पाक वाणिज्य मंत्री से कहा था कि अफगानिस्तान-पाकिस्तान ट्रांजिट एंड ट्रेड एग्रीमेंट में भारत को भी शामिल किया जाये.
यानी भारत को जमीनी रास्ते से अफगानिस्तान तक सामान लाने की सुविधा दी जाये. उधर चीन चाहता है कि कशगर से ग्वादर तक बनाये जा रहे राजमार्ग को भारत से भी जोड़ा जाये. पिछले साल काठमांडू में हुए दक्षेस सम्मेलन में सभी देशों को आग्रह था कि इस इलाके के सभी देशों को जोड़ने का काम किया जाना चाहिए, जिसमें पाकिस्तान ने शुरू में अड़ंगा लगाया, पर बाद में सैद्धांतिक रूप से मान लिया.
अफगानिस्तान की राजनीतिक संरचना को भी हमें समझना होगा. वहां पिछले साल हुए चुनाव के बाद कोई निर्णय नहीं होने की स्थिति में राष्ट्रपति के समानांतर सीइओ का एक पद बनाया गया है.
अफगानिस्तान के सीइओ और भारत के दोस्त के रूप में पहचाने जानेवाले अब्दुल्ला अब्दुल्ला पहले ही भारत दौरा कर चुके हैं. बहरहाल आंतरिक राजनीति का असर दो देशों के रिश्तों पर पड़ता जरूर है, पर केवल उसके कारण ही सब कुछ तय नहीं होता. अफगानिस्तान के चीन के साथ ताल्लुकात का बढ़ना इस इलाके के यथार्थ को भी बताता है. चीन धीरे-धीरे ताकतवर अर्थव्यवस्था के रूप में उभर रहा है. दूसरे वह पाकिस्तान के मार्फत अरब सागर तक रास्ता बना रहा है. इसी महीने चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग पाक यात्रा पर आये थे और उन्होंने चीन-पाकिस्तान कॉरिडोर से जुड़े समझौते किये हैं.
चीन पाकिस्तान में 46 अरब डॉलर का निवेश करने जा रहा है. पाकिस्तान चाहता है कि चीन अफगानिस्तान में भी भूमिका निभाये. चीन ने भी कहा है कि हम अफगानिस्तान में रचनात्मक भूमिका निभाना चाहते हैं. उसकी दिलचस्पी ईरान से संपर्क बनाये रखने में भी है, जिसकी पेट्रोलियम पाइप लाइनें इस इलाके से गुजरेंगी. ईरान की भूमिका भी अब तेजी से बदलनेवाली है. उसके रिश्ते अमेरिका के साथ सुधर रहे हैं. ईरान परंपरा से भारत का दोस्त भी है.
चीन अपने सिल्क रोड कार्यक्रम पर भारी निवेश करने जा रहा है. चीन की भूमिका बढ़ने पर अफगानिस्तान के विकास कार्यो में भारत की भूमिका कम होगी. पाक की एक दीर्घकालीन योजना ‘स्ट्रैटेजिक डैप्थ’ को लेकर है यानी वह अपनी सुरक्षा के लिए अफगानिस्तान का इस्तेमाल करे. उसके असुरक्षा भाव की देन तालिबान आंदोलन है. हर हाल में पाकिस्तान अफगानिस्तान पर पकड़ चाहता है. सवाल है कि क्या अफगानिस्तान को यह बात मंजूर है?
उससे भी बड़ा सवाल है कि चीन, पाकिस्तान और अफगानिस्तान की योजना में भारत का स्थान क्या है? क्या भारत अलग-थलग पड़ेगा? जवाब है, जरूरी नहीं. हमें भारत की भावी आर्थिक, सामरिक भूमिका को भी समझना होगा. परंपरा से भारत की अफगानिस्तान में भूमिका रही है और भविष्य में भी रहेगी. पाकिस्तानी सेना के नजरिये से देखें तो उसकी सुरक्षा के लिए अफगानिस्तान की जरूरत है. लेकिन चीन की योजना आर्थिक है. वह नहीं चाहता कि भारत पूरी तरह अमेरिका के पाले में चला जाये. अमेरिका खुद भी चीन के साथ आर्थिक रिश्ते बिगाड़ना नहीं चाहेगा.
अशरफ गनी बुधवार को सीआइआइ, फिक्की और एसोचैम जैसे कारोबारी संगठनों के साथ बैठक करनेवाले हैं. ऐसी बैठकें आनेवाले समय की जरूरतों को रेखांकित करती हैं.
भारत को इस बात पर आपत्ति नहीं है कि पाकिस्तान और चीन के या अफगानिस्तान और पाकिस्तान के रिश्ते कैसे हों. हमें धैर्य के साथ अपनी भूमिका पुनर्परिभाषित करना है. अफगानिस्तान में शांति हमारे लिए अच्छी बात है. हमारी दिलचस्पी आर्थिक गतिविधियों में है. गनी फिलहाल तालिबानियों से बातचीत के दबाव में हैं. यह दबाव शांति स्थापना के कारण है. उनकी धारणा हमेशा एक जैसी नहीं रहेगी. जैसे चीन ने पाक के ग्वादर बंदरगाह का विकास किया है, भारत भी ईरान में चहबहार बंदरगाह का विकास कर रहा है.
अफगानिस्तान के अलावा भारत और चीन के लिए सहयोग की एक और संभावना अब नेपाल में बनेगी, जहां बड़े स्तर पर पुनर्निर्माण का काम होगा. चीन की योजना नेपाल तक ट्रेन लाने की है. यह काम भारत की तरफ से भी होना चाहिए. यदि ऐसी रेलवे लाइन बन सकती है, तो भारत और चीन का रेल संपर्क भी संभव है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस महीने चीन यात्रा पर जानेवाले हैं. वहां जाने के पहले अशरफ गनी के साथ बातचीत उस यात्रा को सार्थक बनाने में मददगार साबित होगी.
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