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अपरिपक्वता और मूर्खता की हद से आगे

आकार पटेल वरिष्ठ पत्रकार आलम की गिरफ्तारी के बाद भड़की हिंसा में दो दर्जन से अधिक सुरक्षाकर्मी घायल हुए हैं. अगर हमने उस झंडे को नजरअंदाज कर दिया होता, तो ऐसा नहीं होता. इस मामले में मीडिया को जिम्मेवारी लेनी चाहिए, जिसने एक खबर को जरूरत से अधिक उछाला है. अगर किसी जंगल में कोई […]

आकार पटेल
वरिष्ठ पत्रकार
आलम की गिरफ्तारी के बाद भड़की हिंसा में दो दर्जन से अधिक सुरक्षाकर्मी घायल हुए हैं. अगर हमने उस झंडे को नजरअंदाज कर दिया होता, तो ऐसा नहीं होता. इस मामले में मीडिया को जिम्मेवारी लेनी चाहिए, जिसने एक खबर को जरूरत से अधिक उछाला है.
अगर किसी जंगल में कोई पेड़ गिरे, और वहां कोई मौजूद नहीं हो, तब भी क्या उसके गिरने पर कोई आवाज होगी? यह एक गंभीर सवाल है.
इसका समुचित जवाब है- आवाज होगी, लेकिन उसका कोई मतलब नहीं होगा, क्योंकि उस आवाज की परवाह करनेवाला वहां कोई मौजूद नहीं होगा. यह सवाल सच्चाई की प्रकृति के बारे में एक प्रयोग है.कश्मीर से आ रही खबर से इस प्रयोग की काफी समानता है.
पूरे देश को एकता और क्रोध की भावना, जिससे हमारा राष्ट्रवाद बनता है, से एकजुट करनेवाली इस खबर को इस तरह बयान किया जा सकता है- एक आदमी के हाथ में एक झंडा था. यह एक अलग झंडा था, जिसे हम अपने देश के लोगों के हाथों में नहीं देखना चाहते हैं. फिलहाल यह भारत की सबसे बड़ी खबर है.
‘आदमी के हाथ में झंडा’ इतनी महत्वपूर्ण खबर बन गयी है कि सप्ताह दो बड़ी खबरें उसके नीचे पूरी तरह दब गयी. एक खबर थी तीन प्रमुख देशों की यात्रा से हमारे प्रधानमंत्री की विजयी वापसी, जो अपने साथ कई उपहार लेकर आये हैं, जिनमें लड़ाकू विमान भी शामिल हैं. दूसरी खबर 56 दिनों के आत्मचिंतन के बाद राहुल गांधी की गुपचुप तरीके से वापसी की थी. (क्या उन्होंने इस दौरान जंगल में पेड़ गिरने के सवाल पर भी चिंतन किया होगा?)
लेकिन, जो आदमी भारत की प्रमुख खबरों का एजेंडा तय कर रहा है, वह है झंडाधारी मसर्रत आलम, एक कश्मीरी अलगाववादी जिसे कुछ दिनों के लिए फिर से जेल भेज दिया गया है. वह बहुत खुश होगा कि वह कितनी आसानी से कश्मीर की सत्ताधारी पार्टियों में मतभेद खड़ा कर सकता है और एक बड़ी राष्ट्रीय खबर का हिस्सा बन सकता है.
आम तौर पर कुछ ज्यादा ही नरम मानी जानेवाली कांग्रेस भी ताल ठोंकते हुए मसर्रत के खिलाफ कार्रवाई की मांग करने लगी. ‘इंडिया टुडे’ के साथ साक्षात्कार में दिग्विजय सिंह ने पूछा कि ‘जम्मू-कश्मीर सरकार ने मसर्रत आलम साहब को कानून की किस धारा के तहत हिरासत में लिया है?’ श्री सिंह ने कहा, ‘उन्होंने जो कहा और किया है, वह राष्ट्र के विरुद्ध युद्ध छेड़ने के समान है. उन पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के अंतर्गत मामला दर्ज किया जाना चाहिए.’
एक झंडा लहराना राष्ट्र के विरुद्ध युद्ध छेड़ने के बराबर हो गया? कैसे? सिंह के अनियंत्रित और अतिरेकी टिप्पणी में से ‘इंडिया टुडे’ ने सबसे महत्वपूर्ण हिस्से का चयन कर उसे सुर्खी बना दिया- ‘कांग्रेसी नेता ने मसर्रत आलम को ‘साहब’ कहा.’
हां, यह नहीं कहा जा सकता है कि भारत में अपरिपक्वता और मूर्खता का अभाव है. इस संबंध में हमारी वृद्धि दर दुनिया में सबसे अधिक है. इसी बीच ‘द हिंदू’ अखबार ने खबर दी कि मसर्रत आलम ने ऐसी हरकत करने से इनकार किया है- ‘राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के लिए गैर-कानूनी गतिविधि निरोधक कानून के अंतर्गत मामला दर्ज किये जाने के बाद कट्टरपंथी हुर्रियत नेता ने अपने स्पष्टीकरण में कहा है कि उसने पाकिस्तान का झंडा नहीं फहराया था और उसे इसके लिए जिम्मेवार नहीं ठहराया जाना चाहिए.
सार्वजनिक सुरक्षा कानून के तहत चार साल तक हिरासत में रहने के बाद मार्च, 2015 में रिहा होनेवाले मसर्रत आलम ने कहा कि ‘यह गिलानी का स्वागत समारोह था. कुछ नौजवानों के हाथ में पाकिस्तानी झंडा था, लेकिन इसके लिए मुङो कैसे जिम्मेवार माना जा सकता है? राज्य में यह एक आम चलन है और यह किसी एक आदमी का काम नहीं है. मेरी नजर में किसी एक आदमी को इसके लिए दोषी ठहराना ठीक नहीं है.’
मसर्रत का बयान हमारे बारे में भी कुछ बताता है कि एक कट्टरपंथी भी भारत की मुख्यधारा से अधिक तार्किक ढंग से कुछ कह रहा है.
बहरहाल, टेलीविजन पर पिछले कुछ दिनों से यही खबर चलायी जा रही है और वे इससे तब तक चिपके रहेंगे, जब तक कोई और इस खेल को न समझाये. इस बात का हमें अहसास तक नहीं है कि हम किसी को इतनी आसानी से विश्वसनीयता और प्रामाणिकता का उपहार प्रदान कर देते हैं. मसर्रत आलम इस समय कश्मीरी इसलामी कट्टरपंथियों के निर्विवाद नेताओं में एक है और उसे बस इतना करना था कि किसी को एक झंडे के साथ वहां खड़ा कर देना था. उसने हमें सही मायनों में समझ लिया है और आगामी कई वर्षो तक उसकी तरफ से ऐसी कई चीजें देखने को मिल सकती हैं.
उसकी इस हरकत ने कश्मीर के अलगाववादियों के उत्साह को फिर से जगा दिया है. हाशिये पर पड़े वृद्ध सैयद अली शाह गिलानी ने बयान दिया कि ‘घाटी में आजादी समर्थक नारे लगाने के लिए आजादी समर्थक नेताओं के खिलाफ मुकदमे की मैं निंदा करता हूं. ऐसे प्रयासों से हम झुकनेवाले नहीं हैं. अगर आजादी का अधिकार मांगना अपराध है, तो यह अपराध हम बार-बार करते रहेंगे और दुनिया की कोई ताकत हमें ऐसा करने से नहीं रोक सकती है.’
बिल्कुल, दुनिया की किसी ताकत की जरूरत भी नहीं है. भारतीय अपने ऊपर परेशानियां लादने और तिल का ताड़ बनाने में खुद ही सक्षम हैं. आलम की गिरफ्तारी के बाद कश्मीर में भड़की हिंसा में दो दर्जन से अधिक सुरक्षाकर्मी घायल हुए हैं. अगर हमने उस झंडे को नजरअंदाज कर दिया होता, तो ऐसा नहीं होता. इस मामले में मीडिया को जिम्मेवारी लेनी चाहिए, जिसने एक खबर को जरूरत से अधिक उछाला है.
विश्व कप फाइनल के बाद मैंने अपने एक लेख में लिखा था कि क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया के प्रमुख वैली एडवर्डस को सुनना शिक्षाप्रद था. उन्होंने कहा था- ‘मेरे लिए विश्वकप की खास बात रही ऑस्ट्रेलिया में बसे विभिन्न जातीय समूहों का अपनी-अपनी टीमों के समर्थन में आगे आना. ऑस्ट्रेलिया में भारतीय प्रशंसकों का समर्थन अविश्वसनीय रहा.’ फिर उन्होंने ‘पूरे ऑस्ट्रेलिया से अपनी टीम (यानी बांग्लादेश) को समर्थन करने आ रहे बांग्लादेशियों’ की चर्चा की.
तब मैंने लिखा था, ‘ये हैं एक सभ्य देश के सभ्य व्यक्ति. आप कल्पना करें कि अगर भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष ने भारत में रहनेवाले बांग्लादेशियों के लिए ऐसा कहा होता, तो सभी मशाल और भाला लेकर निकल पड़े होते, और अर्णब गोस्वामी उनकी अगुवाई कर रहे होते.’ खैर, हम ऐसे ही हैं!

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