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जनजातीय भाषाओं की अस्मिता बचायें

झारखंड राज्य के गठन का एक अलग महत्व है. संयुक्त बिहार के दक्षिणी छोटानागपुर को अलग झारखंड के रूप में अलग करने के पीछे यहां की विशिष्ट जनजातीय व क्षेत्रीय भाषा और प्राकृतिक संपदा की रक्षा व विकास करना था. दुखद यह है कि राज्य गठन के 14 वर्ष बाद भी इस दिशा में कोई […]

झारखंड राज्य के गठन का एक अलग महत्व है. संयुक्त बिहार के दक्षिणी छोटानागपुर को अलग झारखंड के रूप में अलग करने के पीछे यहां की विशिष्ट जनजातीय व क्षेत्रीय भाषा और प्राकृतिक संपदा की रक्षा व विकास करना था. दुखद यह है कि राज्य गठन के 14 वर्ष बाद भी इस दिशा में कोई उल्लेखनीय कदम नहीं उठाये गये हैं.
अब तक राज्य में आदिवासी समुदाय के लोगों ने ही विभिन्न दलों के माध्यम से राज्य की बागडोर थाम रखी थी, पर उन्हें अपनी भाषा-संस्कृति का विकास करने की सुध ही नहीं रही. उल्टे उन लोगों ने राज्य की जनता को छलते हुए यहां के संसाधनों को लूटने-लुटाने का ही काम किया. आज तक सत्ता में रहनेवाले नेता बिचौलियों के हाथ कठपुतली ही बने रहे. आदिवासी अस्मिता इस राज्य की पहचान है, लेकिन आज इसी की सुध नहीं ली जा रही है.
आज साम्राज्यवादी भाषाएं यहां की जनजातीय भाषाओं को निगल रही हैं, लेकिन कोई इनका संरक्षण करने को आगे नहीं आ रहे हैं. यदि अब भी इन जनजातीय भाषाओं के रक्षार्थ सरकार और बुद्धिजीवि वर्ग की ओर से कारगर कदम नहीं उठाये गये, तो राज्य विशिष्ट भाषाएं विलुप्त हो जायेंगी. आज भी यहां की संताली, मुंडारी, कुड़माली, हो, खड़िया, कुड़ख आदि आदिम भाषाएं ही इस राज्य की पहचान हैं.
ध्यान न देने की वजह से ये काल कवलित हो जायेंगी. ध्यान देनेवाली बात यह भी है कि आज इन्हीं भाषाओं के अपभ्रंश के रूप में नागपुरी, खोरठा, पंचपरगनिया व सादरी भाषाएं मूल जनजातीय भाषाओं से अधिक प्रबल होकर उभर रही हैं. राज्य की भाषाओं के स्थान पर बंगला, उड़िया, मगही, भोजपुरी व अन्य क्षेत्रीय भाषाएं अपनी जगह बनाती जा रही हैं.
महादेव महतो, बोकारो

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