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कैसी हो हमारी स्थानीय नीति
झारखंड गठन के साथ ही यहां स्थानीय नीति बनाने की मांग उठने लगी थी, पर दुर्भाग्य है कि राज्य गठन के 14 साल बाद भी झारखंड की अपनी स्थानीय नीति नहीं बन सकी. इसका खमियाजा यहां के युवा भुगत रहे हैं. स्पष्ट स्थानीय नीति के अभाव में दूसरे राज्य के लोग यहां नौकरी लेने में […]
झारखंड गठन के साथ ही यहां स्थानीय नीति बनाने की मांग उठने लगी थी, पर दुर्भाग्य है कि राज्य गठन के 14 साल बाद भी झारखंड की अपनी स्थानीय नीति नहीं बन सकी. इसका खमियाजा यहां के युवा भुगत रहे हैं. स्पष्ट स्थानीय नीति के अभाव में दूसरे राज्य के लोग यहां नौकरी लेने में सफल होते रहे हैं.
अब राज्य की नयी सरकार इस मुद्दे को लेकर गंभीर दिख रही है. सरकार ने विधानसभा में घोषणा की है कि दो माह के अंदर राज्य की स्थानीय नीति घोषित कर दी जायेगी. इसे देखते हुए प्रभात खबर कैसी हो हमारी स्थानीय नीति श्रृंखला की शुरुआत कर रहा है. कैसी हो स्थानीय नीति, इस मुद्दे पर आप भी अपने विचार हमें मेल कर सकते हैं या फिर लिख कर भेज सकते हैं. हमारा पता है : सिटी डेस्क, प्रभात खबर, 15-पी, कोकर इंडस्ट्रीयल एरिया, रांची या फिर हमें मेल करें.
जो यहां के रैयत, वही हैं मूल निवासी आंध्र प्रदेश की तर्ज पर मिले सुविधा
सूर्य सिंह बेसरा
स्थानीयता का आधार खतियान होना चाहिए. छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी एक्ट) के दायरे में एसटी, एससी व ओबीसी शुरू से आते हैं. ये झारखंड की आबादी का 90 फीसदी हैं. यहां की स्थानीयता नीति इन 90 फीसदी के हक में ही बननी चाहिए. अविभाजित बिहार में सरकारी नियुक्तियों के लिए जिले के अंतिम सर्वे को आधार माना गया. एकीकृत रांची जिले में अंतिम सर्वे 1932 में हुआ था, वहीं एकीकृत संताल परगना में 1935 व एकीकृत सिंहभूम में 1964 में सर्वे हुआ था.
सीएनटी एक्ट 1908, संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम (एसपीटी एक्ट) 1949 और विलकिंसन रूल 1833 में बना है. ये तीनों जमीन से संबद्ध हैं. जो रैयत है, वही मूलनिवासी होना चाहिए. जिसका खतियान नहीं है, उसका सत्यापन ग्राम सभा स्तर से कराया जा सकता है. इसके अतिरिक्त 1951 की प्रथम जनगणना को भी आधार माना जा सकता है.
आंध्र प्रदेश की तर्ज पर झारखंड में स्थानीय लोगों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए. संविधान के अनुच्छेद 371 (डी) के आधार पर आंध्र प्रदेश में चतुर्थवर्गीय से लेकर राज्यस्तरीय सभी पदों पर मूलनिवासियों को प्राथमिकता दी गयी है. यदि यह आंध्रप्रदेश में हो सकता है, तो झारखंड में क्यों नहीं? वर्ष 1956 में लोक नियोजन अधिनियम बना था, जिसमें जम्मू-कश्मीर, मणिपुर व आंध्र प्रदेश को 20 वर्षो तक रोजगार के लिए विशेष अधिकार दिये गये. झारखंड बनने के बाद यहां भी मूल निवासियों को सभी श्रेणी में 20 वर्षो तक प्राथमिकता मिलनी चाहिए. सर्वोच्च न्यायालय के नौ जनवरी 2002 के एक निर्णय के अनुसार कोई भी भारतीय नागरिक दो राज्यों का निवासी नहीं हो सकता. इसका ध्यान रखना महत्वपूर्ण है.
(लेखक आजसू के संस्थापक सदस्य सह महासचिव हैं)
राज्य गठन के 10 वर्ष पहले से रहनेवालों को स्थानीय माना जाये
राधाकृष्ण किशोर
भारतीय नागरिकता और अधिवासी (डोमिसाइल) को लेकर झारखंड में भ्रम की स्थिति है. कई मामलों में राष्ट्रीय नागरिकता भर से काम नहीं चलता. व्यक्ति के वास्तविक अधिवास को तय करना या निर्धारित करना पड़ता है. अधिवास का प्रभावी अर्थ है कानूनी मान्यता प्राप्त स्थायी निवास स्थल.
उदाहरण स्वरूप सेना की नियुक्तियों में राज्यों के कोटे के लिए राज्य का अधिवासी निर्धारित करना भी अनिवार्य हो जाता है. राज्य में कुछ राजनैतिक संगठनों द्वारा झारखंड में अधिवासी होने के लिए 1932-35 के सर्वे रिपोर्ट में उल्लेख को ही प्रमाण मानने की बात कही गयी थी. यह स्वीकार्य नहीं हो सकता, क्योंकि उस समय के भूमिहीनों, गृहविहीनों के नाम सर्वे रिकॉर्ड में नहीं रहने के कारण ऐसे परिवार अधिकार से वंचित हो जायेंगे. यह विडंबना है कि अभी तक अधिवास (स्थानीयता) को परिभाषित नहीं किया गया है.
इसका खामियाजा यहां के युवा वर्ग भुगत रहे हैं. अब यह अतिवांछित आवश्यकता है कि वर्तमान राज्य सरकार स्थानीयता की नीति तय करे. सभी लोगों को यथोचित सामाजिक, आर्थिक न्याय मिल सके. संविधान की भावनाओं का ख्याल हो. मेरे दृष्टिकोण से स्थानीयता के लिए कुछ तथ्य विचारणीय हो सकते हैं.
राज्य गठन के 10 वर्ष पूर्व से लगातार झारखंड में रहनेवाले को स्थायी निवासी माना जाये (झारखंड राज्य के सरकारी सेवा में अधिकारियों/ कर्मचारियों के परिवार के सदस्यों को विशेष छूट के प्रावधान के साथ). राज्य निर्माण के 10 वर्ष पूर्व जिनका जन्म झारखंड क्षेत्र में हुआ या उनकी शिक्षा यहां हुई हो, जिनके माता-पिता यहीं रहते हों तथा झारखंड राज्य में बसे रहने की मंशा झलकती हो ऐसे सभी लोगों को झारखंड राज्य का अधिवासी माना जाना चाहिए.
(लेखक सत्ताधारी दल के मुख्य सचेतक हैं)
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