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भूमि अधिग्रहण पर मध्यमार्ग

सुधांशु रंजन वरिष्ठ टीवी पत्रकार भूमि अधिग्रहण को लेकर एक मध्यमार्ग की जरूरत है, ताकि औद्योगीकरण एवं विकास की गति भी मंद न हो और किसानों को भी नुकसान न हो. क्योंकि पिछले वर्षो में भूमि अधिग्रहण में खूब मनमानी की गयी. केंद्र सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून (उचित मुआवजे का अधिकार एवं भूमि अधिग्रहण […]

सुधांशु रंजन
वरिष्ठ टीवी पत्रकार
भूमि अधिग्रहण को लेकर एक मध्यमार्ग की जरूरत है, ताकि औद्योगीकरण एवं विकास की गति भी मंद न हो और किसानों को भी नुकसान न हो. क्योंकि पिछले वर्षो में भूमि अधिग्रहण में खूब मनमानी की गयी.
केंद्र सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून (उचित मुआवजे का अधिकार एवं भूमि अधिग्रहण में पारदर्शिता, पुनर्वास एवं पुनस्र्थापना अधिनियम, 2013) में संशोधन करने के लिए अध्यादेश जारी किया है. कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी दलों ने संसद सत्र समाप्त होने के तुरंत बाद अध्यादेश जारी किये जाने को अलोकतांत्रिक एवं संसद का अपमान बताया है, जबकि सरकार का पक्ष है कि सरकार ने संदेश देने का प्रयास किया है कि उद्योगों एवं अन्य आर्थिक गतिविधियों को प्रोत्साहन देने के लिए सरकार कृतसंकल्प है और यदि विपक्ष संसद चलने ही न दे, तो सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी तो नहीं रहेगी.
असली सवाल है कि भूमि का असली स्वामी कौन है- उसका मालिक या सरकार? पहले सार्वभौम संप्रभुता के सिद्घांत के तहत भूमि अधिग्रहण के मामले में सरकार का निर्णय अंतिम होता था. भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 में प्रावधान था कि ‘सार्वजनिक उद्देश्यों’ के लिए सरकार किसी भी जमीन का अधिग्रहण कर सकती है. इसमें ‘सार्वजनिक उद्देश्यों’ को कहीं परिभाषित नहीं किया गया. यह अधिकारियों के विवेक पर छोड़ दिया गया. इस कारण चाहे जिस काम के लिए भी जमीन का अधिग्रहण राज्य द्वारा किया गया, उसे सार्वजनिक उद्देश्यों के तहत किया गया अधिग्रहण मान लिया गया.
पहली बार भूमि अधिग्रहण कानून 2013 में इस प्रकार के अधिग्रहण पर रोक लगायी गयी, जिसमें भूस्वामियों की सहमति और सामाजिक प्रभाव आकलन को अनिवार्य बनाया गया. सहमति के लिए 70 प्रतिशत की सहमति होने की शर्त है. इसकी चौथी अनुसूची में उन क्षेत्रों को रखा गया है, जिनके लिए सहमति एवं सामाजिक प्रभाव आकलन की शर्तो से छूट दी गयी है. इनमें रेलवे, राष्ट्रीय राजमार्ग, परमाणु ऊर्जा तथा बिजली आदि से जुड़ी परियोजनाएं शामिल हैं.
अभी जारी अध्यादेश में सरकार ने कुछ अन्य परियोजनाओं को शामिल किया है, जिन्हें जल्द पूरा किया जाना है. इनमें शामिल हैं- औद्योगिक कॉरिडोर, रक्षा एवं उत्पादन तथा ग्रामीण बुनियादी ढांचा, जिसके तहत विद्युतीकरण, निर्धन वर्ग के लिए आवासों का निर्माण तथा आधारभूत परियोजनाएं आती हैं.
किसान संगठनों ने इसके विरुद्ध आंदोलन की धमकी दी है. वैसे किसान संगठन 2013 के अधिनियम से भी संतुष्ट नहीं थे. मुआवजे का जो प्रावधान 2013 के कानून में है, उससे किसानों को शिकायत नहीं होनी चाहिए. इसमें सर्किल दर का दोगुना जमीन की कीमत के रूप में तथा दोगुना पारितोषिक के रूप में देने का प्रावधान है. इससे शिकायत नहीं होनी चाहिए, क्योंकि अध्यादेश में भी मुआवजे के साथ कोई छेड़-छाड़ नहीं की गयी है. कई जानकारों का तो मानना है कि इतने मुआवजे पर तो कोई भी किसान जमीन बेचने को तैयार हो जायेगा.
संविधान लागू हुए एक वर्ष भी नहीं हुआ था कि सरकार एवं न्यायपालिका के बीचसीधी टक्कर हुई, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने कहा कि सरकार वे लोग चलाते हैं, सुप्रीम कोर्ट नहीं. प्रथम संवैधानिक संशोधन में अनुच्छेद 19 को संशोधित कर जमींदारी उन्मूलन कानून की संवैधानिक वैधता सुरक्षित करने के लिए प्रावधान जोड़े गये.
प्रथम संशोधन ने 9वीं अनुसूची को जन्म दिया. यह व्यवस्था की गयी कि 9वीं अनुसूची में डाले गये कानूनों की न्यायिक समीक्षा नहीं की जायेगी. मुआवजे को लेकर लगातार विवाद चलता रहा. पश्चिम बंगाल बनाम बेला बनर्जी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि ‘मुआवजे’ का अर्थ है- अधिग्रहित जायदाद के मूल्य के बराबर धन देना. इसे निरस्त करने के लिए संविधान में चौथा संशोधन 1954 में किया गया कि किसी कानून को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जायेगी कि उसमें दिया जानेवाला मुआवजा पर्याप्त नहीं है. इस तरह एक लंबी लड़ाई चलती रही.
2013 के कानून के बाद पहली बार भूस्वामियों को उसकी भूमि पर पूरा अधिकार दिया गया. परंतु उद्योग जगत का मानना था कि इससे भूमि का अधिग्रहण लगभग असंभव हो जायेगा. दरअसल, एक मध्यमार्ग की जरूरत है, ताकि औद्योगीकरण व विकास की गति भी मंद न हो और किसानों को भी नुकसान न हो. पिछले वर्षो में भूमि अधिग्रहण में इतनी मनमानी की गयी कि किसानों के बीच जबरदस्त आक्रोश उभरा. विकास के लिए जमीन का अधिग्रहण जरूरी है, किंतु अधिगृहीत जमीन का इस्तेमाल वाणिज्यिक गतिविधियों के लिए नहीं होना चाहिए.
आलोचना का आधार यह हो सकता है कि अध्यादेश के जरिये इतना महत्वपूर्ण संशोधन किया जाना चाहिए या नहीं. राष्ट्रपति ने भी हस्ताक्षर करने के पहले सरकार से सफाई मांगी कि अध्यादेश जारी करने की हड़बड़ी क्यों है. संतुष्ट होने के बाद उन्होंने सहमति दी. हमारा संविधान इस मायने में अनूठा है, जहां अध्यादेश का प्रावधान है. राष्ट्रमंडल के किसी भी अन्य देश के संविधान में ऐसा प्रावधान नहीं है.

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