हमारे देश की एक विडंबना यह भी है कि यहां खेलों के प्रबंधन से जुड़े विवादों की चर्चा अकसर खिलाड़ियों की उपलब्धियों पर हावी रहती है. इंडियन प्रीमियर लीग में सट्टेबाजी के आरोप की जांच कर रही मुद्गल कमिटी रिपोर्ट आने के बाद एक बार फिर से भारतीय क्रिकेट के भ्रष्ट प्रबंधन को लेकर बहसें शुरू हो गयी हैं.
रिपोर्ट तो सार्वजनिक नहीं हुई है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में कुछ दिन पहले सुनवाई के दौरान बताया गया था कि कमिटी ने क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष एन श्रीनिवासन, उनके दामाद गुरुनाथ मयप्पन, राज कुंद्रा और लीग के प्रमुख अधिकारी सुंदर रमन की गतिविधियों की जांच की है. इसके अलावा जांच के दायरे में रहे तीन खिलाड़ियों की पहचान जाहिर नहीं की गयी है.
इनमें से कुछ लोगों की हरकतें गलत रही हैं. बहरहाल, रिपोर्ट का विवरण तो बाद में आयेगा, लेकिन खबरों की मानें तो श्रीनिवासन संदेह से परे नहीं हैं. भले ही उन्हें सट्टेबाजी या मैच फिक्सिंग का दोषी न पाया गया हो, लेकिन लीग में भ्रष्टाचार की जानकारी उन्हें थी और इसे रोकने के लिए उन्होंने जरूरी कदम नहीं उठाये. ऐसे में यह सवाल स्वाभाविक है कि क्या उन्हें भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड और इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल का संचालन करने का नैतिक अधिकार है? उनके दामाद को सट्टेबाजी में संलिप्त माना गया है और यह भी कहा गया है कि उन्होंने मुद्गल कमिटी की जांच को अवरुद्ध करने की कोशिश की. परंतु, श्रीनिवासन की पकड़ इतनी मजबूत है कि कई सदस्यों के विरोध के बावजूद बोर्ड ने आधिकारिक रूप से उनका समर्थन किया है.
भारत में अक्सर कहा जाता है कि यहां क्रिकेट सिर्फ खेल नहीं, बल्कि एक धर्म है. ऐसे में भारतीय क्रिकेट को संचालित करनेवाली संस्था का संस्थागत स्वरूप बनाये रखने की जिम्मेवारी सामूहिक है. एक संदेहास्पद व्यक्ति के साथ खड़े होकर बोर्ड न केवल खेल की भावना, बल्कि न्याय की संवेदना और अपने भविष्य के साथ भी खिलवाड़ कर रहा है. हालांकि प्रसिद्ध खिलाड़ी गावस्कर ने श्रीनिवासन का जोरदार विरोध किया है, पर ऐसी आवाजें कमजोर हैं. कोर्ट द्वारा नियुक्त अंतरिम अध्यक्ष शिवलाल यादव तो श्रीनिवासन की वापसी के लिए प्रार्थना कर रहे हैं. ऐसे में बोर्ड की विश्वसनीयता बनाये रखने की उम्मीद अब न्यायालय से ही है.