सांप के गुजर जाने के बाद लाठी पीटने का एक मकसद लोगों के सामने अपनी वीरता का बखान करना होता है. हैरानी यह है कि कुछ ऐसा ही बखान सचिन तेंडुलकर की आत्मकथा में है.
इस बखान के केंद्र में हैं भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कोच ग्रेग चैपल. सचिन ने लिखा है कि चैपल उन्हें भारतीय क्रिकेट की दुनिया पर राज करने का लालच देकर राहुल द्रविड़ की जगह कप्तान बनाना चाहते थे. खिलाड़ियों के साथ चैपल का व्यवहार ‘रिंग-मास्टर’ जैसा था.
टीम की जीत के वक्त वे खुद मीडिया के आगे आ जाते थे, परंतु हार के समय खिलाड़ियों को आगे कर देते थे. 2007 के वल्र्डकप में भारत के निराशाजनक प्रदर्शन का ठीकरा चैपल पर फोड़ते हुए सचिन ने लिखा है कि उन्हें कोच से हटाये जाने के बाद हर खिलाड़ी ने राहत की सांस ली थी. उल्लेखनीय है कि चैपल के अमर्यादित व्यवहार और सौरव गांगुली को कप्तानी से हटाने में उनकी बड़ी भूमिका के बारे में भारत का हर क्रिकेटप्रेमी जानता है. इस जानी हुई बात में सचिन की आत्मकथा कुछ नये ब्योरे जोड़ती है, लेकिन ये ब्योरे सचिन की उस छवि के विपरीत जान पड़ते हैं, जिसे एक खिलाड़ी के रूप में उन्होंने बड़े जतन से गढ़ा था. सचिन ने सर्वदा संयम का साथ दिया. मैदान में वे जरूरत के अनुरूप गेंद के साथ आक्रामक भी हो सकते थे, तो संयम के साथ भी शॉट खेल सकते थे.
यह उनका संयम ही था, कि जीत की खुमारी उन पर कभी हावी नहीं हुई. हर नौजवान की तरह उन्हें भी कार और बाइक की सवारी पसंद थी, पर किसी ने उन्हें रात में रोड को रौंदते नहीं देखा है. प्रेम-विवाह उन्होंने भी किया, पर प्राइवेसी के दायरों में रह कर. मैदान के अंदर और बाहर के ऐसे संयमित बरताव ने ही उन्हें भारतीय मध्यवर्ग का दुलारा बना दिया. मध्यवर्ग को सचिन के संयमित खेल में अपना जीवन-मूल्य साकार होता दिखा, इसलिए उन्हें ‘क्रिकेट का भगवान’ मान लिया. सचिन आज ‘भारत-रत्न’ हैं. अपनी इस नयी पारी में उन्हें और अधिक संयम का परिचय देना चाहिए था. लेकिन, उनकी आत्मकथा ने अतीत के कुछ ऐसे विवादास्पद पन्नों को पलटने की कोशिश की है, जो उनको परिभाषित करनेवाले संयम से मेल नहीं खाता है. पूछा जा सकता है कि चैपल की दादागीरी पर तब उन्होंने चुप्पी क्यों साधे रखी थी?