नरेंद्र मोदी की जन-स्वीकार्यता जबरदस्त है, लेकिन वह राजनीतिक फॉर्मेट में है, न कि समाज सुधारक के रूप में. लिहाजा मोदी के नये फॉर्मेट में यानी समाज सुधारक की भूमिका में सफल होने की पहली शर्त यही होगी कि वह अपनी जन-स्वीकार्यता को अक्षुण्ण बनाये रखें. अगर राजनेता के रूप में उनका परफॉर्मेस जन-अपेक्षाओं से नीचे रह गया, तो जनता को लगेगा कि वोट मांगनेवाला यह याचक अब दाता को ही सही रास्ते पर आने की शिक्षा देने लगा है.
विश्व के प्रजातांत्रिक देशों के इतिहास में यह पहली बार होगा कि धुर राजनीतिक फॉर्मेट के बाड़े को लांघ कर कोई राजनेता समाज-सुधार की दुनिया में घुसे. गाहे-ब-गाहे बाहर के कुछ राष्ट्राध्यक्षों ने या भारत में कुछ प्रधानमंत्रियों ने कभी अगर ऐसी कोशिश की भी, तो जनता ने उसे रिसीव नहीं किया. महात्मा गांधी का प्रयोग पहला ऐसा प्रयोग था, लेकिन आखिर तक आते-आते उन्हें भी मायूसी हाथ लगी और राजनीतिक स्थितियां उनके हाथ से फिसलने लगीं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह अनूठा प्रयोग शुरू किया है. पहली बार स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले के प्राचीर से अपने पहले उद्बोधन में बलात्कार की चर्चा करते हुए अभिभावकों को यह बता कर कि लड़की अगर शाम में कहीं घर से बाहर जाती है तो वे दस बार पूछते हैं, लेकिन लड़का बाहर जाता है तो नहीं पूछते. यानी लड़कों को अभिभावकीय नियंत्रण की वही बंदिशें नहीं ङोलनी पड़तीं, जो लड़कियों को ङोलनी पड़ रही हैं. दूसरी बार आकाशवाणी से जनता को संबोधित करते हुए ‘एक राजा था’ नुमा दो कहानियों के जरिये, जिसमें उन्होंने जनता से अपना आत्मबल पहचानने और क्रियात्मक होने (आगे बढ़ने) का भाव दर्शाने के लिए कहा था. सफाई को जन आंदोलन का स्वरूप देने का शासकीय उपक्रम भी एक ऐसा ही प्रयोग था. ये तीनों कार्य समाज सुधार के परिक्षेत्र में आते हैं. अगर नरेंद्र मोदी अपने इस प्रयोग में सफल रहते हैं, तो पूरे विश्व प्रजातंत्र के लिए यह एक नया आयाम खोलेगा और राजनेताओं से जनता की अपेक्षाएं बढ़ जायेंगी. साथ ही पूरे राजनीतिक संवाद का धरातल बदल जायेगा, ‘पैराडाइम शिफ्ट’ होगा.
आखिर नरेंद्र मोदी को समाज सुधारक के फॉर्मेट में घुसने की जरूरत क्यों पड़ी? समाज सुधार का कार्य अलग संस्थाएं करती हैं. धार्मिक संस्थाएं भी कई बार इसमें अपनी भूमिका निभाती हैं. महात्मा गांधी के बाद पिछले 65 सालों से इस देश में सामाजिक नेतृत्व में जबरदस्त शून्यता पायी गयी. एक भी सर्वमान्य, सार्वभौमिक जन-स्वीकार्यता वाला समाज सुधारक भारत में पैदा नहीं हुआ. इस दौर में धार्मिक संस्थाएं भी अपनी विश्वसनीयता खोती चली गयी. शंकराचार्य की संस्था से लेकर तमाम शक्तिशाली और उच्च प्रतिबद्धता वाली सस्थाएं देश के चारित्रिक निर्माण में अपनी सार्थक भूमिका निभाने का उपक्रम नहीं कर सकीं. अब हमारे देश में कोई राजाराम मोहन राय या दयानंद सरस्वती जैसा पैदा नहीं हो पा रहा है और अगर है भी तो उसकी विश्वसनीयता का घोर संकट है. गांधी के बाद से शायद वह कारखाना ही बंद हो गया, जिसमें समाज-सुधारक पैदा होते थे.
क्या कारण है कि एक ही व्यक्ति ये दोनों कार्य- राजनीति और समाज सुधार- एक साथ नहीं कर सका है, जिसकी वजह से मोदी का प्रयास अनूठा, लेकिन दुरूह, माना जा रहा है और इसकी सफलता पर प्रश्न चिह्न लग रहे हैं? मनीषियों ने बताया है कि याचना में शक्ति नहीं होती. दाता उसी को देता है, जिसमें दैन्य भाव देख कर वह अभिभूत होता है. प्रजातंत्र में चुनाव एक अहम प्रक्रिया है. राजनेता चाहे कितना भी बड़ा हो, याचक की तरह जनता से वोट की भीख मांगता है. भीख यदि एक ही जगह से ज्यादा मिल जाती है तो याचक तृप्त हो जाता है और उसे दर- दर नहीं जाना पड़ता. कालांतर में उस भिखारी नेता और ज्यादा देनेवाले दाता के बीच एक अप्रगट समझौता हो जाता है. जब बहुत साल बीत जाते हैं, तो दाता भी याचक में दैन्य भाव देखने का शौक पाल लेता है. राजनीति में एक प्रक्रिया शुरू होती है, जिसमें जो दाता के सामने जितना दैन्य भाव दिखाता है, वह उतना कामयाब होता है. खोखले वादे करना, एक दातावर्ग को पहचान-समूह के आधार पर दूसरे पहचान-समूह से अधिक तरजीह देना आदि इसी क्रम में आते हैं. इससे प्रजातंत्र, जिसमें जनसेवा व्यक्ति की बेहद समुन्नत सोच का प्रतिफल होना चाहिए था, प्रोफेशनल याचना का भाव ले लेता है.
नरेंद्र मोदी की जन-स्वीकार्यता जबरदस्त है, लेकिन वह राजनीतिक फॉर्मेट में है, न कि समाज सुधारक के रूप में. इस नेता में जनता ने सक्षम प्रशासक, कुशल विकासकर्ता, सुदृढ़ आतंकवादविरोधी राजनेता और भ्रष्टाचार के प्रति ‘शून्य सहिष्णुता’ रखनेवाला मुखिया देखा और उन्हें प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचाया. लिहाजा नरेंद्र मोदी के इस नये फॉर्मेट में यानी समाज सुधारक की भूमिका में सफल होने की पहली शर्त यही होगी कि वह अपनी जन-स्वीकार्यता को अक्षुण्ण बनाये रखें. अगर राजनेता के रूप में उनका परफॉर्मेस जन-अपेक्षाओं से नीचे रह गया, तो जनता को लगेगा कि वोट की भीख मांगनेवाला यह याचक अब दैन्य भाव छोड़ कर दाता को ही सही रास्ते पर आने की शिक्षा देने लगा है. इससे करीब 65 साल पुराने दाता-याचक भाव के संबंध गड़बड़ाने लगेंगे.
तात्पर्य यह कि जहां भ्रष्टाचार रोकने के, महंगाई कम करने के, मानव विकास सूचकांक पर स्थिति बेहतर करने के और भारत को एक ताकतवर राष्ट्र बनाने के उपक्रम उन्हें तत्काल करने होंगे या फिर ऐसा करता हुआ दिखना होगा. साथ ही उन्हें सामाजिक बुराइयों के प्रति जनता के बीच शून्य सहिष्णुता का भाव विकसित करना होगा. मतदाताओं का एक वर्ग पूछने लगा है कि हमने तो आपको भेजा था महंगाई कम करने और विकास को नयी गति देने के लिए, ये पलट कर हमी को लेक्चर क्यों दिया जा रहा है! यानी उसका अहंकारी दाता भाव आहत हो रहा है. अपने अहंकार को आहत होता देखना उसे रास नहीं आ रहा. जैसे वह वर्ग जो केंद्र सरकार में नौकरी कर रहा है, उसे सबसे ज्यादा यह बुरा लगा कि गांधी जयंती की उसकी छुट्टी खराब हो गयी. क्या प्रधानमंत्री ऐसे लोगों को नजरअंदाज करते हुए, राजनीति और समाज सुधार यानी दोनों कार्यो को संपादित करने की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं?
मोदी का प्रयास बेहद समीचीन है. लेकिन, चूंकि वे राजनीतिक फॉर्मेट की उपज हैं, इसलिए उन्हें यह भी देखना होगा कि जनता का विश्वास उनकी राजनीतिक सार्थकता पर आधारित है. लिहाजा राजनेता के रूप में वे जनता की अपेक्षाओं को भी उतने ही यत्न के साथ मुकम्मल करें, जिस शिद्दत से वे छोटी-छोटी सामाजिक बुराइयों को दूर करने का प्रयास कर रहे हैं. राजनीतिक सार्थकता की कीमत पर समाज सुधार का उनका कार्य आगे नहीं बढ़ सकता है. पंडित जवाहर लाल नेहरू के बाद शायद नरेंद्र मोदी पहले ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्हें व्यापक जन-विश्वास हासिल है. नेहरू के प्रति इस विश्वास का कारण स्वतंत्रता आंदोलन से उपजा था, लेकिन नरेंद्र मोदी के प्रति उपजा विश्वास हमारे अनुत्पादक एवं शोषक सिस्टम के मरुस्थल में एक जलाशय की तरह है.
एन के सिंह
वरिष्ठ पत्रकार
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