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बिजनेस डिप्लोमेसी का चीनी व्यूह

चीन में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का कोई पद नहीं है. इसलिए भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल जब पिछले सोमवार को पेइचिंग गये, तो उन्हें उनका समकक्ष नहीं मिला. वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का निमंत्रण पत्र लेकर चीन के राष्ट्रपति शी चिनपिंग के पास गये थे, जिसमें उन्हें मोदी के गृहनगर वेदनगर पधारने का […]

चीन में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का कोई पद नहीं है. इसलिए भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल जब पिछले सोमवार को पेइचिंग गये, तो उन्हें उनका समकक्ष नहीं मिला. वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का निमंत्रण पत्र लेकर चीन के राष्ट्रपति शी चिनपिंग के पास गये थे, जिसमें उन्हें मोदी के गृहनगर वेदनगर पधारने का आमंत्रण था.

भेज रहा हूं नेह निमंत्रण प्रियवर तूझे बुलाने को, हे मानस के राजहंस तू भूल न जाना आने को. सवा अरब की आबादीवाले देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को निमंत्रण पत्र लेकर जाने का काम करना पड़ेगा, ऐसा सोचा न था. खैर, इस यात्रा में अजीत डोभाल की मुलाकात चीन के स्टेट कौंसिलर यांग चीशी से हुई, जिनसे उन्होंने नियंत्रण रेखा के पार पाकिस्तान में चीन के सहयोग से बन रही सड़कों और इंफ्रास्ट्रक्चर पर चिंता व्यक्त की. उनका तर्क था कि इन सड़कों और इंफ्रास्ट्रक्चर का दुरूपयोग सीमा पार के अतिवादी कर सकते हैं.

हालांकि यांग चीशी ने ऐसा कोई आश्वासन नहीं दिया कि वे सीमा पर सड़कें बनाने में पाकिस्तान को सहयोग नहीं करेंगे. आज भारत को स्ट्रिंग ऑफ पर्ल पॉलिसी के तहत चीन ने जिस तरह से घेर रखा है, उसके पटकथा लेखक यांग चीशी ही रहे हैं. वे नेपाल, म्यांमार, मालदीव और पाकिस्तान जैसे भारत के पड़ोसी देशों में लगातार जाते रहे हैं. चीशी इस पर भी चुप रहे कि चीन अरुणाचल पर क्या सोचता है.
अजीत डोभाल जब चीन में थे, तभी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने नयी दिल्ली में एक संवाददाता सम्मेलन में कहा था कि चीन यदि अरुणाचल को भारत का हिस्सा नहीं मानता है, तो भारत भी तिब्बत और ताइवान को वन चाइना पालिसी का हिस्सा नहीं मानेगा. इससे पहले चीन को परोक्ष रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तोक्यो में दिये वक्तव्य में विस्तारवादी कह कर विभूषित कर चुके थे. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के बयान के सप्ताह भर पहले उद्योग व वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमण दूसरी बार चीन के दौरे पर थीं. आखिर चीन इन दोनों तीखे, कड़वे शब्दवाणों को कैसे बरदाश्त कर गया? क्या इसकी वजह आर्थिक राजनय है, जिसके बिना पर राष्ट्रपति शी जापान और अमेरिका के व्यूह को तोड़ने के लिए दूरगामी चाल चल रहे हैं?
राष्ट्रपति शी शांघाई कॉरपोरेशन ऑर्गेनाइजेशन की 14वीं शिखर बैठक से अपने मध्य और दक्षिण एशिया दौरे की शुरुआत कर यह संदेश देना चाहते थे कि उनकी यात्रा का मयार आर्थिक है. चीन, रूस, कजाकस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान और उज्बेकिस्तान जैसे छह सदस्यों वाला संगठन शांघाई कॉरपोरेशन ऑर्गेनाइजेशन इस क्षेत्र की आर्थिक ताकत है, जिसकी चाबी कभी मास्को के पास होती है, तो कभी पेइचिंग के पास. चीन ने इसका समर्थन किया है कि रूस, शांघाई कॉरपोरेशन ऑर्गेनाइजेशन का अगला अध्यक्ष होगा. राष्ट्रपति शी यदि सीधा भारत आते, तो हम मान सकते थे कि यह यात्रा उभयपक्षीय है.
शी ठीक उसी अंदाज में ताजिकिस्तान के बाद, मालदीव, श्रीलंका और भारत की यात्रा कर रहे हैं, जैसे अमेरिकी राष्ट्रपति कई देशों में कदम रखते हुए अपनी महत्ता को मजबूत करते हैं. शी घरेलू राजनीतिक उपद्रव से घिरे पाकिस्तान में नहीं जा रहे हैं, तो उनके ऑल वेदर फ्रेंड के प्रतिनिधि इसी हफ्ते पेइचिंग दरबार में सिजदा कर आये हैं.
हिमालय में चीन 3,380 किलोमीटर लंबी सड़कें, रेल और औद्योगिक इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार कर चुका है. वह उसकी आर्थिक कूटनीति का हिस्सा रहा है. चीन की आर्थिक कूटनीति जून, 2001 में शांघाई कॉरपोरेशन ऑर्गेनाइजेशन की स्थापना के बाद से आरंभ हुई बतायी जाती है. हालांकि शांघाई फाइव जैसा संगठन 1996 से अस्तित्व में था. चीन आर्थिक कूटनीति आरंभ करने के मामले में भारत से दस साल पीछे रहा है.
भारत ने आर्थिक कूटनीति का आगाज 1991 में ही किया था. यह तब ही तय हो गया था कि सिक्किम और तिब्बत के रास्ते भारत व्यापार बढ़ायेगा और इन इलाकों में इंफ्रास्ट्रक्चर मजबूत करेगा. लेकिन, सच यह है कि हम चीन से 50 साल पीछे चल रहे हैं. चीनी राष्ट्रपति शी जिस सिल्क रोड कूटनीति की पैरोकारी कर रहे हैं, वह दरअसल सोवियत संध के विघटन के बाद से चीनी नेतृत्व ने प्रारंभ की थी.
इसके पीछे चीन की अवधारणा 20वीं सदी में हान साम्राज्य के दौर की अर्थव्यवस्था और रेशम मार्ग का पुनरोद्धार करना था. हान शासकों के दौर में चीन मध्य एशिया, दक्षिण और पूर्व एशिया के देशों से सड़क मार्ग से जुड़ा था. शांघाई फाइव जैसे संगठन के निर्माण के पीछे चीन की मंशा यही थी कि सिल्क रूट को फिर से जिंदा करे और समृद्धि लाये.
राष्ट्रपति शी सिल्क रोड इकोनॉमिक बेल्ट के अलावा समुद्री मार्ग पर अधिपत्य के लिए मेरीटाइम सिल्क रोड को फोकस कर रहे हैं. चीन, हिंद महासागर में भारत के मुकाबले अपनी स्थिति मजबूत बनाने की हर कोशिश कर रहा है. इसका ताजा उदाहरण मलक्का जलडमरूमध्य है, जो हिंद महासागर और प्रशांत महासागर को जोड़ता है.
मलक्का जलडमरूमध्य दुनिया का व्यस्ततम समुद्री मार्ग है, जहां से रोजाना हजार से अधिक जहाज और तेल टैंकर गुजरते हैं. चीन अपना पांच चौथाई पेट्रोलियम मलक्का मार्ग से मंगाता है. अंडमान निकोबार द्वीप समूह का 750 किलोमीटर मलक्का जलडमरूमध्य से जुड़ता है, जिसके तीन सौ किलोमीटर वाले मुहाने पर भारत ने हवाई पट्टी का निर्माण, हेलीकॉप्टरों के लिए एयरफील्ड, सैन्य गतिविधियां तेज करने और ड्रोन की तैनाती कर चीन की मुश्किलें बढ़ाने की सोच ली है.चीन इससे चिंतित है.
लेकिन, उससे भी अधिक हमें इस समुद्री इलाके से लगी बंगाल की खाड़ी में जापानी मौजूदगी को लेकर सतर्क होने की जरूरत है. जापान, बांग्लादेश के साथ मिल कर बंगाल की खाड़ी को वृहद् इकोनॉमिक जोन बनाने की सोच रहा है, जहां जबरदस्त प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी. चीन की कॉरपोरेट डिप्लोमेसी इस लाइन पर चल रही है कि तिब्बत या ताइवान पर उकसाने वाली टिप्पणियों की अनदेखी करो और व्यापार विस्तार पर ध्यान दो. इसलिए विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की टिप्पणियों पर चीन में उबाल नहीं आया.
राष्ट्रपति शी लीप फ्रॉम इस्ट एशिया की ऐसी नीति पर काम कर रहे हैं, जिसका मतलब होता है, पूर्वी एशिया के देशों से आगे उछल कर दूसरे इलाके में व्यापार का विस्तार करना. राष्ट्रपति शी 2012 के आखिर में, जून, 2013 में और जुलाई, 2014 में दक्षिण अमरीकी देशों की यात्रा कर चुके हैं. दिलचस्प है कि इन दक्षिण अमेरिकी देशों ने ताइवान से भी कूटनीतिक संबंध बनाये रखा है, जिसका मतलब यह हुआ कि ये देश चीन की वन चाइना पॉलिसी को नहीं मानते. उसके बावजूद राष्ट्रपति शी लगातार दक्षिण अमेरिकी देश इसलिए जा रहे हैं, ताकि चीन इस इलाके में यूरोपीय संघ का व्यापारिक वर्चस्व तोड़ सके.
चीन आर्थिक राजनय के मामले में फ्रांस और अमेरिका से प्रतिस्पर्धा कर रहा है. फ्रांस की इकोनॉमिक डिप्लोमेसी के तीन लक्ष्य हैं, पहला, विदेशी बाजार में अपनी कंपनियों को सपोर्ट करो, दूसरा, विदेशी कंपनियों को अपने देश के लिए आकृष्ट करो ताकि रोजगार सृजन हो सके, और तीसरा, विदेश मंत्रालय का स्टाफ इकोनॉमिक रिफ्लेक्स यानी आवश्यकता पड़ने पर तुरंत सक्रिय हो जाने की प्रक्रिया में पारंगत हो. लेकिन, क्या भारत-चीन के बीच आर्थिक राजनय में फ्रांस और अमेरिका का मॉडल काम करेगा? शायद नहीं. आज राष्ट्रपति शी के लिए हम लाख रेड कार्पेट बिछा दें, लेकिन न तो हम 1962 के युद्ध को विस्मृत कर सकते हैं, न ही अरुणाचल से लेकर लद्दाख तक 3,488 किलोमीटर लंबी सीमा विवाद को.
क्या राष्ट्रपति शी के रहते हम सीमा विवाद को सुलझा लेंगे? इसका उत्तर 17वीं बार सीमा वार्ता के बाद भी नहीं मिल सका है. यह ठीक है कि सीमा विवाद के कारण चीन से भारत को 34 अरब डॉलर का सालाना व्यापार घाटा हो रहा है. इससे उबरने के लिए क्या पांच अरब डॉलर के निवेश वाले दो इंडस्ट्रियल पार्क, इंफ्रास्टक्चर में चीनी निवेश ही एकमात्र रास्ता है?

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