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घोषणावीर नहीं कर्मवीर चाहिए

जीवेश रंजन सिंह हाल के दिनों अचानक पूर्व बिहार-कोसी क्षेत्र की फिजा बदली है. यह बदलाव किसी खास मौसम का नहीं, पर अचानक बहुत कुछ होने लगा है. हर गली-मोहल्ले में प्रेम के स्वरूप बदलने लगे हैं. सरेराह फूंक दिया जा रहा इनसान. चिकित्सकों को उठा लेने की परंपरा भी शुरू हो गयी. ऐसे में […]

जीवेश रंजन सिंह
हाल के दिनों अचानक पूर्व बिहार-कोसी क्षेत्र की फिजा बदली है. यह बदलाव किसी खास मौसम का नहीं, पर अचानक बहुत कुछ होने लगा है. हर गली-मोहल्ले में प्रेम के स्वरूप बदलने लगे हैं. सरेराह फूंक दिया जा रहा इनसान. चिकित्सकों को उठा लेने की परंपरा भी शुरू हो गयी. ऐसे में टूटी-फूटी सड़कों के बीच मेट्रो और पशुओं के झुंड के बीच से हवाई जहाज उड़ाने की कल्पना होने लगी है. चिकित्सकों की फीस तय की जा रही, तो नये भागलपुर की भी परिकल्पना होने लगी है. कुछ माह से शांत शैक्षणिक माहौल भी अशांत होने लगा है.
विश्वविद्यालय में तालाबंदी, कॉलेजों में काम का बहिष्कार और स्कूली शिक्षा के पुरोधाओं के यहां इगो की लड़ाई चरम पर है. कई दिन से भागलपुर के आरडीडीइ व डीइओ कार्यालय में काम बंद है. मांग है आरडीडीइ बदले जायें. ख्यातिलब्ध एसएम कॉलेज में कर्मियों की हड़ताल है, कारण है एक कर्मी का तबादला. मध्याह्न् भोजन को लेकर हंगामे का सिलसिला भी जारी है. कारण वही, निगरानी का अभाव. तिलकामांझी भागलपुर विवि में फिर तालेबंदी का दौर शुरू हो गया है. एक बार फिर रिजल्ट का रोना. हाल ही में भागलपुर में बिहार आर्थिक परिषद का 16वां वार्षिक सम्मेलन हुआ था. यूजीसी के पूर्व अध्यक्ष प्रो सुखदेव थोराट आये थे. उन्होंने मूल मंत्र दिया- छात्र व शिक्षक कॉलेज आयें, शिक्षक उन्हें पढ़ायें, उनकी परीक्षा ली जाये और समय पर रिजल्ट निकले.
वे चले गये, साथ ही उनके विचार भी चले गये. इस मूल मंत्र पर कोई चर्चा नहीं हुई. दूसरी ओर रिजल्ट का भूत अचानक निकला और शुरू हो गया आंदोलनों का सिलसिला. इस पर कहीं चर्चा नहीं कि क्यों फंसा रिजल्ट? इस पर भी चर्चा नहीं होती कि कॉलेजों में क्यों कम हो गयी उपस्थिति? न ही इस बात पर मंथन हो रहा कि कॉलेजों में आयोजित होनेवाले अभिभावक गोष्ठी के प्रति अभिभावकों की रुचि क्यों नहीं? याद रहे भागलपुर की एक पहचान शैक्षणिक हब की भी है. यह अरुचि इस पहचान को भी नष्ट कर सकती है.
दूसरी ओर भागलपुर में अपराध बढ़ा है. हत्या की घटनाओं में तेजी से इजाफा हुआ है. हाल के नौ महीनों के 12 चर्चित हत्याकांडों में एक भी आरोपी पकड़ा नहीं जा सका. झपटमार गिरोह की तेजी भी बढ़ी है. देर शाम ही शहर की सड़कें सूनी होने लगी हैं. मुख्यमंत्री के आगमन से पूर्व शहर में अलर्ट की स्थिति के बीच अपराधियों ने जघन्य घटना को अंजाम दिया. आराम से गोली मारी, काटा और जलाया. यह शासन-प्रशासन की धमक पर सवालिया निशान है. अपराधी बेखौफ हैं और आम शहरी इज्जत व जान बचाने की जुगत में हैं.
इस बदलती फिजा में पूरी कवायद इस पर है कि कौन कितने सपने बेच सकता है. इतने पर भी संतोष नहीं, अब सपनों की रैपिंग (आकर्षक आवरण) की मारामारी है. आत्मविश्वास आवश्यक है, पर उसके पीछे ठोस आधार का होना भी जरूरी है. आम आदमी की बात हो, यह जरूरी है, पर तरीका क्या हो, यह जानना ज्यादा जरूरी है. कम पैसे में चिकित्सा और जीवन की मूल सुविधाएं आवश्यक हैं, पर सबसे ज्यादा जरूरी है जीवन का बचे रहना. नागरिक सुविधाओं का होना. इस पर पहल की जरूरत है.
परिवर्तन किसी एक के बूते संभव नहीं और न ही परिवर्तन का ठेका किसी एक के कंधे पर है. यह सहभागिता का विषय है. लोगों को शांति, सुरक्षा व बुनियादी सुविधाएं पहले चाहिए, मेट्रो बाद में. इस पर पहल की जरूरत है. वरना घोषणाएं चेहरे पर हर्ष नहीं, व्यंग्य लायेंगी.

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