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अब असाधारण रूप से गतिशील है भारत

विदेश नीति के क्षेत्र में मोदी जो कर रहे हैं, वह दूरंदेश नजरिये से संचालित क्रिया-कलाप है. अमेरिका यात्रा के पहले वह इतनी रफ्तार पकड़ लेना चाहते हैं कि कोई राजनयिक गतिरोध उनकी उपलब्धियों को धूमिल न कर सके. संसार भर के कुल यूरेनियम भंडार का तीसरा हिस्सा ऑस्ट्रेलिया में है. यह देश हर साल […]

विदेश नीति के क्षेत्र में मोदी जो कर रहे हैं, वह दूरंदेश नजरिये से संचालित क्रिया-कलाप है. अमेरिका यात्रा के पहले वह इतनी रफ्तार पकड़ लेना चाहते हैं कि कोई राजनयिक गतिरोध उनकी उपलब्धियों को धूमिल न कर सके.

संसार भर के कुल यूरेनियम भंडार का तीसरा हिस्सा ऑस्ट्रेलिया में है. यह देश हर साल 7,000 टन यूरेनियम का निर्यात करता है. लेकिन, 2012 में भारत को किये जानेवाले निर्यात पर रोक लगा दी गयी थी, क्योंकि भारत ने परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया था. अमेरिका के साथ परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग पर करार के बाद भी ऑस्ट्रेलिया अपना फैसला बदलने को तैयार नहीं हुआ था. ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि क्यों इस वक्त ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री के भारत दौरे के मौके पर दो देशों के बीच यह समझौता संपन्न हो सका है? यह सवाल इसलिए भी पूछा जाने लायक है कि नरेंद्र मोदी के जापान दौरे के दौरान इस तरह के समझौते पर हस्ताक्षर न हो सकने से कुछ निराशा का एहसास हुआ था.

हमारी समझ में मुद्दा भले ही परमाणविक ईंधन और ऊर्जा सुरक्षा का हो, दोनों देशों के संदर्भ में इसके अलग से विश्लेषण की जरूरत है. यह स्पष्ट है कि मनमोहन सरकार व यूपीए की बिदाई और मोदी की ताजपोशी के बाद विश्व भर में भारत की छवि में अभूतपूर्व सुधार हुआ है और कई देश हमारे भविष्य के बारे में नये सिरे से सोचने को मजबूर हुए हैं. ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री ने बेहिचक यह बात स्वीकार की है कि आज भारत असाधारण रूप से गतिशील है और उसके साथ घनिष्ठ संबंध बनाना लाभप्रद है. जो भी देश भारत का बहिष्कार करेगा, यह सरकार निश्चय ही उसको मित्र नहीं समङोगी और अपना बाजार उसके उत्पादों के लिए खुला नहीं छोड़ेगी. एक गाल पर राजनयिक चांटा खाकर दूसरा गाल पेश करनेवाली मुद्रा मनमोहन सिंह को ही सोहती थी, जिसकी बड़ी कीमत देश ने चुकायी. यह बात कड़वी लग सकती है, लेकिन हकीकत यही है कि सिंह के कार्यकाल में ऑस्ट्रेलिया में पढ़ने-काम करनेवाले भारतीयों को नस्लवादी हिंसा का शिकार एकाधिक बार होना पड़ा था.

कुशल कारीगर-पेशेवर आप्रवासियों के बिना ऑस्ट्रेलिया प्रगति नहीं कर सकता. वह हमसे कहीं अधिक खुशहाल है, लेकिन भारतीय पूंजी का तिरस्कार नहीं कर सकता. अदानी ऑस्ट्रेलिया की खदानों को खरीदने के लिए 16 अरब अमेरिकी डॉलर की बोली लगा चुके हैं. फिलवक्त पर्यावरण की रक्षा की मुहिम चलानेवाले इस सौदे पर आपत्ति कर रहे हैं, लेकिन ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री यह स्पष्ट कर चुके हैं कि बहुत जल्दी इस समस्या का समाधान तलाश लिया जायेगा.

भारत की ही तरह ऑस्ट्रेलिया भी कट्टरपंथी इसलामी दहशतगर्दी का शिकार रहा है. बाली नाइट क्लब धमाके में हताहत होनेवालों में ऑस्ट्रेलियाइ पर्यटक सबसे ज्यादा थे. भारत के साथ इस क्षेत्र में सामरिक सहकार की संभावनाओं ने भी मतैक्य को सहज बनाया लगता है. ऑस्ट्रेलिया की सरकार चाहे किसी दल की हो, अपनी खेतीबारी की उपज, डेरी उद्योग के उत्पादों, मदिरा आदि के निर्यात के लिए भारत जैसा बड़ा बाजार तलाशती रही है.

क्रिकेट का खेल तो अनोखी दोस्ती की नुमाइश का सिर्फ एक बहाना है! यह भी अनदेखा ना करें कि खुद ऑस्ट्रेलिया भारत में खनिज उत्खनन में दिलचस्पी रखता है. बैलडीला खदान इसी का उदाहरण है. इसके अलावा दक्षिण पूर्व एशिया पर गहराती चीन की दैत्याकार छाया के प्रति भी ऑस्ट्रेलिया आशंकित है. विडंबना है कि आज ऑस्ट्रेलिया यह कह रहा है कि हमने भारत के साथ इस समझौते पर हस्ताक्षर इसलिए किये हैं, क्योंकि हम उसका भरोसा करते हैं. हमें पता है कि ऑस्ट्रेलियाई यूरेनियम का इस्तेमाल हथियारों के लिए नहीं किया जायेगा. अंतरराष्ट्रीय कानून के मामले में भारत का आचरण हमेशा आदर्श रहा है! आश्चर्य यह है कि मई, 2014 के पहले क्या इस आचरण में फर्क था, जिस कारण भारत पर भरोसा नहीं किया गया? कुल मिला कर फर्क मनमोहन और मोदी का ही नजर आता है.

जापान की तुलना ऑस्ट्रेलिया से नहीं की जा सकती है. वह दुनिया का एकमात्र देश है, जिसने एटमी हथियारों का विनाश ङोला है. परमाणविक नि:शस्त्रीकरण के बारे में उसकी संवेदनशीलता समझी जा सकती है. इसके अलावा, हाल ही में फुकोशिमा जैसी भीषण परमाणविक दुर्घटना ने भी उसे घायल किया है.

कहावत है दूध का जला मट्ठा भी फूंक-फूंक कर पीता है. वही हाल जापान का है. उसका विश्वास अर्जित करने में समय लगे, तो नाहक सरदर्द पालने की दरकार नहीं. देर-सबेर वह भी भारत को परमाणविक ईंधन के निर्यात के लिए राजी हो जायेगा. इस घड़ी उसने जितने बड़े पैमाने पर आर्थिक सहायता की पेशकश की है और तकनीकी सहकार का आश्वासन दिलाया है, वह संतोष का विषय है. जापानयात्राके दौरान चीन काफी गौर से यह देख सुन रहा था कि मोदी क्या कहते-करते हैं. उनके एक वक्तव्य की (जिसमें उन्होंने जापान की प्रशंसा करते हुए यह कहा था कि वह उन देशों से भिन्न है, जिनके तेवर विस्तारवादी रहते हैं) कुछ विश्लेषकों ने यह कहते हुए आलोचना भी की कि मोदी का संकेत चीन की तरफ था. कुछ का यह भी मानना है कि जापान के साथ चीन को संतुलित करनेवाली धुरी का प्रयास कभी सफल नहीं हो सकता. कोरिया और चीन भारत के लिए हमेशा ज्यादा महत्वपूर्ण रहेंगे. हमारी समझ में यह कुतर्क है, क्योंकि पाकिस्तान की ही तरह चीन भी भारत का प्रमुख प्रतिद्वंद्वी कहिये या प्रतिस्पर्धी है और रहेगा भी. पाकिस्तान के साथ तो रिश्तों में सुधार एक सीमा तक ही संभव है, जो कब की पार हो चुकी है.

विदेश नीति के क्षेत्र में नरेंद्र मोदी जो कुछ कर रहे हैं, वह एक दूरंदेश नजरिये से संचालित हो रहा क्रिया-कलाप है. सितंबर अंत में वह अमेरिका कीयात्रापर निकलेंगे. इसके पहले वह इतनी रफ्तार पकड़ लेना चाहते हैं कि किसी तरह का राजनयिक गतिरोध उनकी अब तक की उपलब्धियों को धूमिल न कर सके. इसके बाद नवंबर में बारी आयेगी ऑस्ट्रेलिया की. तब तक वातावरण और भी अनुकूल हो चुका होगा, ऐसी इस सरकार की आशा है. चीन-यात्र तक भारत लेन-देन की वार्ता के लिए कहीं अधिक बेहतर स्थिति में पहुंच चुका होगा. एक-दो दिन पहले ही इस बात के आसार मिले हैं कि यूक्रेन में युद्ध विराम होनेवाला है. इसके बाद पुतिन के रूस की तरफ भारत तवज्जो दे सकता है.

कुल मिला कर लुब्बो-लुवाब यह है कि भारत के राष्ट्रहित के संदर्भ में या ऊर्जा सुरक्षा की दृष्टि से भी परमाणविक करार सर्वोपरि नहीं है. यह भरम डॉ मनमोहन सिंह सरकार का फैलाया है. यह बृहत्तर परिप्रेक्ष्य में मानचित्र का एक हिस्सा भर है. नरेंद्र मोदी के जापान के दौरे तथा ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री की भारतयात्राका मूल्यांकन करते वक्त यह बात भुलायी नहीं जानी चाहिए.

पुष्पेश पंत

वरिष्ठ स्तंभकार

pushpeshpant@gmail.com

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