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बुलेट ट्रेन का सपना और सच

किसी समाज के भ्रष्ट होने के संकेत सबसे पहले उसकी भाषा से मिलते हैं. भ्रष्ट समाज का आलोचनात्मक विवेक मर जाता है. आलोचना का विवेक मर जाये, तो शब्द अपने अर्थ के तमाम प्रसंगों को छोड़ कर मुक्त-प्रवाह में बहने लगते हैं. प्रधानमंत्री की जापान-यात्रा की रिपोर्टिग करने पहुंचा हिंदी न्यूज चैनल का एक पत्रकार […]

किसी समाज के भ्रष्ट होने के संकेत सबसे पहले उसकी भाषा से मिलते हैं. भ्रष्ट समाज का आलोचनात्मक विवेक मर जाता है. आलोचना का विवेक मर जाये, तो शब्द अपने अर्थ के तमाम प्रसंगों को छोड़ कर मुक्त-प्रवाह में बहने लगते हैं.

प्रधानमंत्री की जापान-यात्रा की रिपोर्टिग करने पहुंचा हिंदी न्यूज चैनल का एक पत्रकार जापान में चलनेवाली बुलेट ट्रेन में बैठ कर इस यात्रा का महत्व बता रहा है. वह कह रहा है- ‘भारत का लोकमानस बुलेट ट्रेन के स्वप्न को साकार करना चाहता है.’

अगर आपको ‘बुलेट ट्रेन’ सरीखे अंगरेजी के शब्द के प्रयोग से परहेज ना हो, तो फिर व्याकरण के हिसाब से पत्रकार के मुंह से निकला हुआ यह वाक्य दुरुस्त ही कहलायेगा. लेकिन व्याकरण के हिसाब से दुरुस्त जान पड़नेवाला हर वाक्य सार्थक भी हो, यह जरूरी नहीं! सोचिए, पत्रकार के मुंह से निकले इस वाक्य में भारत शब्द का क्या अर्थ है? क्या यह सवा अरब की आबादी वाला भारत है? अगर यह सवा अरब की आबादी वाला भारत है, तो फिर इस भारत में कितने लोग हैं, जिनकी जेब इतनी बड़ी है कि 60 हजार करोड़ की कीमत वाले बुलेट ट्रेन का टिकट उसमें समा सके? जापान में बुलेट ट्रेन से 500 किमी की यात्र के लिए आपको छह हजार रुपये चुकाने पड़ते हैं. सवा अरब की आबादी वाले भारत में एक यात्र पर एक झटके में छह हजार रुपये खर्च कर सकने की क्षमता और जरूरत वाले लोग कितने हैं ?

आइये, कुछ अनुमान लगाते हैं. जनगणना के नवीनतम आंकड़ों के हिसाब से देखें, तो देश की कुल आबादी में महज 4.6 प्रतिशत लोग जरूरत और जेब से इस काबिल हैं कि उनके घर में टीवी, कंप्यूटर, स्कूटर या कार और टेलीफोन या मोबाइल एक साथ मौजूद है. अपनी क्रयशक्ति के बूते उपभोग की इस ऊंचाई तक पहुंचे व्यक्ति के बारे में यकीनी तौर पर माना जा सकता है कि वह अपनी जरूरतों को आगे और विस्तार देने के लिए बुलेट-ट्रेन की सवारी गांठना चाहेगा. तुरंता पूंजी और उड़ंता निवेश में यकीन करनेवाले आबादी के इस छोटे-से हिस्से के लिए ही अजब-गजब नामों वाली कंपनियां हवाई जहाज उड़ाया करती हैं. गाहे-बिगाहे हवाई उड़ान भरने में सक्षम यह आबादी जरूर चाहेगी कि जिस रफ्तार से वह आकाश लांघती है, उसी रफ्तार से धरती भी लांघे. तो क्या प्रधानमंत्री की जापान-यात्राकी रिपोर्टिग कर रहा पत्रकार सवा अरब लोगों में से मात्र पांच-छह करोड़ लोगों की जरूरत और स्वप्न के बारे में बात कर रहा था? लेकिन तब अपनी बात में भारत शब्द का प्रयोग किया. क्या उस पत्रकार की नजर में शेष भारत अपनी साढ़े चार प्रतिशत आबादी के सपनों का बोझ ढोनेवाला एक भारवाहक मात्र है?

जरा ठहरें, पत्रकार पर आरोप लगाने से पहले यह भी देखें कि उसने बुलेट ट्रेन को भारत के ‘लोकमानस का स्वप्न’ कहा था. बहुधा स्वप्न शब्द का प्रयोग अपनी बातचीत में हम उम्मीद के अर्थ में करते हैं. देश के साढ़े चार फीसदी आबादी के लिए बुलेट ट्रेन एक विलंबित सच्चाई है, तनिक प्रतीक्षा के बाद इसे घटित होना है.

तो फिर वे कौन लोग हैं जिनकी आंखों में बुलेट ट्रेन के स्वप्न पल रहे हैं. बुलेट ट्रेन की उम्मीदों से भरी आंखों की तादाद इस देश में कितनी है? सपने भी हैसियत की नाप-जोख के हिसाब से आते हैं. उनका आसमान हकीकत की जमीन की नाप के हिसाब से ही बड़ा होता है. इसी कारण ‘स्वप्न’ और ‘दिवास्वप्न’ में फर्क किया जाता है. देश की तकरीबन 45 प्रतिशत आबादी अपने रोजमर्रा के काम के लिए साइकिल पर निकलती है.

बुलेट ट्रेन की उम्मीद उसके लिए दिवास्वप्न की श्रेणी में आयेगी. देश की तकरीबन 18 प्रतिशत आबादी जिसके पास साइकिल, स्कूटर, कार, स्कूटर, कंप्यूटर, मोबाइल-फोन, टीवी, रेडियो में से कुछ भी नहीं है, उसके लिए भी बुलेट ट्रेन को लेकर उम्मीद पालना दिवास्वप्न कहलायेगा. बुलेट ट्रेन के सपने या तो वह 9 प्रतिशत आबादी पाल सकती है, जिसने कंप्यूटर खरीद लिया है या फिर हद से हद 21 प्रतिशत की तादाद में मौजूद वह आबादी, जिसकी जेब की गहराई इतनी है कि आज स्कूटर-मोटरसाइकिल की सवारी गांठती है. तो क्या जापान पहुंचा वह पत्रकार कुल 21 प्रतिशत लोगों के स्वप्न को पूरे भारत का स्वप्न बता रहा था? पत्रकार का भारत इतना छोटा कैसे हो गया, जिसमें सिर्फ 21 प्रतिशत आबादी के सपने समा सकते हैं?

दरअसल, प्रधानमंत्री की जापान-यात्राकी रिपोर्टिग करने पहुंचा हिंदी खबरिया चैनल का पत्रकार अपने दर्शकों के साथ छल कर रहा था. छल एक छोटे से भारत को पूरा भारत कहने का, छल मुट्ठी भर लोगों के सपनों का भार पूरे देश पर लादने का, छल उस लोकमानस को छुपाने का जो रेल को परदेसी पिया से जोड़ कर ‘बैरन’ मानता आया है. किसी समाज के भ्रष्ट होने के संकेत सबसे पहले उसकी भाषा से मिलते हैं. भ्रष्ट समाज का आलोचनात्मक विवेक मर जाता है. आलोचना का विवेक मर जाये, तो शब्द अपने अर्थ के तमाम प्रसंगों को छोड़ कर मुक्त-प्रवाह में बहने लगते हैं. फिर यह जान पाना मुश्किल हो जाता है कि कोई व्यक्ति मुंह से थूक फेंक रहा है या शब्द उगल रहा है. हिंदी खबरिया चैनल के उस पत्रकार के साथ यही हुआ था.

चंदन श्रीवास्तव

एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस

chandanjnu1@gmail.com

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