अमितेश कुमार
रंगकर्म समीक्षक
amitesh0@gmail.com
एक संवाद है- ‘घर देता का घर, कुनी घर देता का…’ इस संवाद को कई अभिनेताओं ने साकार किया, लेकिन डॉ श्रीराम लागू की बात ही कुछ और थी. उन्होंने अनेक नाटकों और फिल्मों में भूमिकाएं कीं, लेकिन इस संवाद और भूमिका से जुड़ी उनकी छवि अमिट रही.
वीवी शिवाड़कर के लिखे कालजयी नाटक ‘नटसम्राट’ का यह संवाद है, जिसमें गणपतराव बेलवलकर की केंद्रीय भूमिका डॉ लागू ने निभायी. यह भूमिका एक ऐसे अभिनेता की है, जो मंच से संन्यास ले चुका है, जीवन के उत्तर काल में यथार्थ से उसका तालमेल नहीं बन पाता. मंच का अभिनय और यथार्थ के आपसी द्वंद्व और दोनों का अंतर मिट जाने के कारण उसके जीवन में ऐसी त्रासदी आती है, जो किंग लीयर की याद दिलाती है.
कहानी में कई स्तर हैं. एक कलाकार का अक्खड़पन है, जिसे उसकी संतान नहीं समझ पाती. दूसरा स्तर परिवार का है, जिसमें बुजुर्गों की सीमा तय कर दी गयी है और फिर उपेक्षा, उपहास और पीड़ा का संसार बनता है. इस भूमिका को तीन सौ बार से अधिक बार डॉ लागू ने मंच पर जिया है. नाटक पर आधारित सिनेमा भी दर्शकों के मन से डॉ लागू की छवि को नहीं निकाल सका. ‘नटसम्राट’ मतलब डॉ श्रीराम लागू.
बीते 17 दिसंबर को पुणे के अस्पताल में डॉ श्रीराम लागू की जीवन की भूमिका का अंत हो गया. रंगमंच के अतिरिक्त वे अंधश्रद्धा निर्मुलन अभियान से भी जुड़े थे.
वे ऐसे अभिनेताओं में से थे, जिन्होंने सिनेमा और रंगमंच के बीच संतुलन बनाये रखा. ‘सिंहासन’, ‘सामना’, ‘पिंजरा’ जैसी मराठी फिल्मों तथा ‘लावारिस’, ‘घरौंदा’, ‘इनकार’, ‘हेरा फेरी’, ‘मुकद्दर का सिकंदर’ जैसी फिल्मों में उनके अभिनय को याद किया जाता है. ‘घरौंदा’ फिल्म में अभिनय के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेता का फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिला.
श्रीराम लागू का जन्म महाराष्ट्र के सतारा में 16 नवंबर, 1927 को हुआ था. उन्होंने पुणे के बीजे मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस की पढ़ाई की और नाक-कान-गले के सर्जन बने. रंगकर्म का शौक बचपन से ही था.
तंजानिया में मेडिकल प्रैक्टिस छोड़कर 42 साल की उम्र में भारत वापस आ गये और मराठी के पेशेवर रंगमंच में सक्रिय हुए. वसंत कानेटकर के नाटक ‘इथे ओशाला मृत्यु’ में संभाजी की भूमिका से अभिनय की शुरुआत की और 1970 में ही ‘नटसम्राट’ में काम किया. 1972 में वी शांताराम की आखिरी फिल्म ‘पिंजरा’ में मराठी रंगमंच के अभिनेता नीलू फूले के साथ काम किया और गुरुजी की भूमिका में अपनी छाप छोड़ी. डॉ लागू अभिनय में आवाज के उतार-चढ़ाव और भेदनेवाली आंखों से काम लेते थे और साधारण भूमिकाओं को भी आकर्षक बना देते थे.
मराठी के व्यावसायिक रंगमंच से इतर मराठी के प्रयोगशील रंगमंच से भी वे जुड़े रहे और इसके लिए छबीलदास स्कूल से जो मूहिम शुरू हुई थी, उसमें अपना योगदान भी दिया. विजय तेंदुलकर के नाटक ‘गिद्धाड़े’ को निर्देशित किया और ‘उद्ध्वस्त धर्मशाला’, ‘एंटीगनी’ नाटकों में अभिनय किया. वे पेशेवर और प्रयोगशील जैसे विभाजन के सख्त खिलाफ थे.
वे मानते थे कि जिस थियेटर से व्यावसायिक लाभ नहीं कमाया जा सकता, लेकिन उसका कथ्य ऐसा है कि उसे किया ही जाना चाहिए, तो उसे छबीलदास जैसे स्पेस में किया जा सकता है. वे संगीत नाटक अकादमी सम्मान, मध्य प्रदेश सरकार का कालीदास सम्मान, पद्मश्री से सम्मानित थे. ‘लमाण’ नाम से इन्होंने अपनी आत्मकथा भी लिखी है, जिसका हिंदी में अर्थ है मालवाहक. अभिनेता मालवाहक ही तो होता है, जो निर्देशकों, लेखकों और किरदारों की संवेदनाओं को ढोता है.
दूरदर्शन के लोकप्रिय साक्षात्कार के कार्यक्रम में तबस्सुम से डॉ लागू ने कहा था कि ‘मुझे मालूम नहीं है कि थियेटर के दर्शकों को मेरी कमी महसूस होती है या नहीं, लेकिन यह जरूर है कि मुझे थियेटर की कमी बहुत महसूस होती है.’ आधुनिक भारतीय रंगमंच और सिनेमा के इस बेमिसाल अभिनेता की कमी रंगमंच और सिनेमा को हमेशा महसूस होती रहेगी.