सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
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मैंने सुना, कहीं एक विद्यार्थी हिंदी भाषा के परचे में इसलिए फेल कर दिया गया, क्योंकि उसने ‘दीपावली’ के निबंध में यह नहीं लिखा कि दीपावली दीपों का त्योहार है. उसके मास्साब ने बताया कि लड़का वैसे काबिल है और उसने निबंध में अपेक्षित 200 शब्दों से भी ज्यादा, 250 शब्द लिखे हैं, पर यही नहीं लिखा कि दीपावली दीपों का त्योहार है, जबकि यह निबंध तो शुरू ही इस वाक्य से करने की परंपरा है.
परंपरा का इतना खयाल रखनेवाले उस अध्यापक के प्रति मेरे मन में श्रद्धा उमड़ने को हुई, पर मैंने उसे यह समझाकर रोक दिया कि इतनी जल्दबाजी ठीक नहीं, क्योंकि अगर सारी श्रद्धा अभी उमड़ा दी, तो बाद में क्या करेंगे?
ऐसा हुआ भी, क्योंकि अध्यापक ने आगे बताया कि उसने ऐसी हालत में भी, जबकि अध्यापक अंक देने के लिए उत्तर एक बार भी नहीं पढ़ते और अंदाजे से ही समझकर कि इसमें क्या लिखा हो सकता है, अंक दे देते हैं, मैंने उस विद्यार्थी के निबंध को एक बार नहीं, बल्कि कई-कई बार पढ़ा, कि क्या पता, बच्चे ने बीच में ही कहीं लिख दिया हो कि दीपावली दीपों का त्योहार है, पर यह जानकर मुझे घोर आश्चर्य हुआ कि ऐसा उसने अंदर भी कहीं नहीं लिखा था. उसने अफसोस करते हुए कहा कि बताइये, दीपावली के निबंध में अगर यही नहीं लिखा जायेगा कि वह दीपों का त्योहार है, तो उसका ‘दीपावली’ नाम ही कैसे सार्थक होगा? उसने कहा कि इसमें शक नहीं कि विद्यार्थी ने निबंध में बहुत अच्छी और मौलिक बातें लिखीं, पर विद्यालयों में बच्चों को लीक से हटकर कुछ सोचने, करने और लिखने के लिए तो बढ़ावा नहीं दिया जा सकता न!
अब कोई कारण नहीं बचा था अद्यापक के प्रति अपनी श्रद्धा को उमड़ने से रोकने का, लिहाजा मैंने उसे इशारा कर दिया, जिससे वह ‘उमड़ी कल थी मिट आज चली’ का-सा शोर करते हुए बांध तोड़कर बह निकली और अपने साथ अध्यापक को भी बहा ले गयी. इस मानसिक तूफान के गुजरने के बाद मैंने इस बात पर विचार किया कि आखिर बच्चे ने दीपावली के निबंध में क्यों नहीं लिखा होगा कि दीपावली दीपों का त्योहार है?
तो मुझे खयाल आया कि अब दीपावली दीपों का त्योहार रह ही कहां गया है? वह तो अब बिजली के बल्बों और लड़ियों का त्योहार है, जो सीधे हमारे शत्रु देश चीन से आती हैं. यह हमारा तरीका है दुश्मन देश को सबक सिखाने का. अन्य देश तो अपने दुश्मन देशों का हुक्का-पानी बंद करके उनसे बदला लेते हैं, हम उनसे ज्यादा से ज्यादा माल खरीदकर ऐसा करते हैं.
या फिर दीपावली पटाखों का त्योहार है. जोर-जोर से पटाखे फोड़कर हम अपने दूसरे दुश्मन देश पाकिस्तान के कान फोड़ने की कोशिश करते हैं, चाहे इस चक्कर में हम खुद बहरे क्यों न हो जायें. दीपावली को धुएं का त्योहार भी कहा जा सकता है, क्योंकि इस अवसर पर हम देशभर में इतना धुआं कर डालते हैं कि अगले कई दिनों तक ‘सीने में जलन आंखों में तूफान-सा क्यों है, इस शहर में हर शख्स परेशान-सा क्यों है’ वाली हालत रहती है. ऐसे में बच्चे दीपावली को दीपों का त्योहार लिखें भी तो कैसे?