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भारत की सामरिक मजबूती
प्रो सतीश कुमार अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार singhsatis@gmail.com पिछले दिनों पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने दुनिया को चेतवानी दी है कि विश्व समुदाय कश्मीर के मसले पर संजीदा नहीं होता है और सुरक्षा परिषद के तहत भारत पर अंकुश नहीं लगाया जाता है, तो पाकिस्तान किसी भी हद तक जा सकता है. यानी वह […]
प्रो सतीश कुमार
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार
singhsatis@gmail.com
पिछले दिनों पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने दुनिया को चेतवानी दी है कि विश्व समुदाय कश्मीर के मसले पर संजीदा नहीं होता है और सुरक्षा परिषद के तहत भारत पर अंकुश नहीं लगाया जाता है, तो पाकिस्तान किसी भी हद तक जा सकता है.
यानी वह अपने आण्विक हथियारों के प्रयोग भी कर सकता है. पाकिस्तान अजीब स्थित में है. यह सच है कि दक्षिण एशिया का यह हिस्सा आण्विक शक्तियों के कारण सबसे खतरनाक हालत में है. इसलिए सवाल यह है कि क्या चीन अब पाकिस्तान का साथ देगा? भारत के रक्षा मंत्री ने स्पष्ट कर दिया है कि भारत के आण्विक सिद्धांत में परिवर्तन किया जा सकता है. इस बात पर दुनिया में कोई हल्ला नहीं हुआ, क्योंकि यह तर्क नया नहीं है और न ही दुनिया के आण्विक देशों के पास कोई नैतिक बल है, जो भारत की इस सोच का विरोध करें, लेकिन भारत के इस बदलाव से उसे कई तकनीकी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है.
बात इतनी भर नहीं है. साल 1998 से लेकर 2019 तक दुनिया के आण्विक व्यवस्था में क्या परिवर्तन हुए, उस बात को भी जानना होगा. अमेरिका कश्मीर के संदर्भ में पहले भी बोल चुका है कि यह आण्विक दृष्टिकोण से दुनिया का सबसे खतरनाक पॉइंट है, क्योंकि भारत, पाकिस्तान और चीन के पास आण्विक हथियार हैं.
भारत ने जब मई 1998 में आण्विक विस्फोट को अंजाम दिया था, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने अमेरिकी राष्ट्रपति को पत्र लिखा था, जिसमें चीन से भारत को आण्विक असुरक्षा की ही चर्चा की थी. पाकिस्तान का पूरा आण्विक ढांचा चीन निर्मित है.
आज भी पाकिस्तान के पास जितने आण्विक प्रक्षेपास्त्र हैं, वे उसे चीन द्वारा ही दिये गये हैं. ऐसे में भारत का 1999 आण्विक ड्राफ्ट, जिसे 2003 में आण्विक सिद्धांत के रूप में मान लिया गया, वह अपने आप में दोषपूर्ण था.
भारत के आण्विक सिद्धांत के तीन महत्वपूर्ण आयाम हैं. पहला- नो फर्स्ट यूज. इसकी व्याख्या समय-समय पर बदलती रही अर्थात हम संघर्ष और युद्ध में पहले आण्विक हथियारों का प्रयोग नहीं करेंगे. चीन की नीति में भी ढुलमुल नो फर्स्ट यूज की चर्चा है, लेकिन पाकिस्तान द्वारा कोई ऐसी बात नहीं कही गयी है.
दूसरा सिद्धांत बड़े पैमाने पर प्रतिक्रिया की रही है अर्थात भारत पर आण्विक अाक्रमण की स्थिति में भारत पूरे दमखम के साथ दुश्मन पर आक्रमण बोल देगा. अब इस बात का जवाब तीसरे सिद्धांत में निहित है, जो न्यूनतम प्रतिरोधक क्षमता की बात करता है. अगर इन तीनों को जोड़ कर चीन और पाकिस्तान के संदर्भ में देखा जाये, तो यह सिद्धांत बेढंगा दिखता है.
साल 2000 में खुद वाजपेयी ने जालंधर में कहा था- पाकिस्तान का यह सोचना भूल होगी कि वह आतंकी संगठनों द्वारा भारत की सुरक्षा व्यवस्था को तंग करने की बेलगाम कोशिश करता रहेगा और आण्विक हथियारों की धमकी देता रहेगा, तो भारत अपने आण्विक हथियारों को लेकर चुप बैठा रहेगा.
साल 2016 में भी पूर्व रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने भी नो फर्स्ट यूज सिद्धांत को बदलने की बात की थी. साल 2014 के भाजपा के चुनावी एजेंडे में भी यह शामिल था, लेकिन प्रश्न यह भी है कि क्या भारत के पास इतने आण्विक हथियार और प्रक्षेपास्त्र हैं, जिसे हम न्यूनतम प्रतिरोधक क्षमता कहते हैं?
अगर अाक्रमण हो भी गया, तो क्या हम बचाव के साथ दुश्मन को मटियामेट करने का दमखम रखते हैं? यह बात भारत को मालूम है कि पाकिस्तान को युद्ध में मदद पहुंचानेवाला चीन है, जिसके पास अत्यंत आधुनिक आण्विक हथियार हैं.
जहां तक बात अंतरराष्ट्रीय नैतिकता की है, उसमें भारत पर कोई उंगली नहीं उठा सकता. दुनिया के तमाम देश आण्विक मसलों पर ढीले हैं. अमेरिका 1987 के मध्यम रेंज मिसाइल संधि से अपने आपको बहार कर लिया. रूस आज की तारीख में नो फर्स्ट यूज सिद्धांत की तिलांजलि दे चुका है, ऑस्ट्रेलिया और जापान भी आण्विक हथियारों की होड़ में है, तो भारत दुनिया की नैतिकता का भार क्यों उठायेगा?
भारत के पास अन्य आण्विक देशों की तरह मजबूत आण्विक संग्रह नहीं है और न ही मारक क्षमता वाले प्रक्षेपास्त्रों का जखीरा है. हमें इसे और समृद्ध करने की जरूरत है. चीन ने अपनी योजना के तहत 2035 तक खुद को सबसे मजबूत सैनिक शक्ति बनाने की बात कही है.
भारत की स्थिति चीन की तुलना में बहुत कमजोर है, विशेषकर आण्विक हथियारों को लेकर. चीन के आण्विक मिसाइल ऐसी जगहों पर स्थित हैं, जहां से भारत का हर शहर चीन की मारक क्षमता के दायरे में है. पाकिस्तान आण्विक हमले की भभकी देता ही रहता है. ऐसे में क्या यह जरूरी नहीं कि हम अपने सिद्वांत की खामियों को दूर करें?
शीत युद्ध के बाद दुनिया का सामरिक समीकरण तेजी से बदला है. विश्व राजनीति की धुरी एशिया बन चुका है. एशिया के दो बड़े राष्ट्र के बीच दुनिया का सबसे लंबा सीमा विवाद जारी है. भारत के पश्चिमी छोर पर एक बेलगाम देश पाकिस्तान है, जिसके व्यवहार से युद्ध की स्थिति बनी हुई है.
चीन जब घोषित रूप से दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति बन जायेगा, तो सबसे ज्यादा दिक्कत भारत को होगी, लेकिन इसमें समय है. भारत इस समय का कूटनीतिक उपयोग अमेरिका और अन्य देशों के साथ मिल कर अपने आण्विक ढांचे को मजबूत करने में कर सकता है. एक महत्वपूर्ण पहल 2003 के सिद्धांत में फेरबदल करके किया जा सकता है. भारत की सामरिक शक्ति के लिए यह बहुत जरूरी है.
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