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अहम है बैंकों का स्वामित्व

अजीत रानाडे सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन [email protected] बैंकों का स्वामित्व अर्थशास्त्र तथा वित्त के अकादमिक पेशों में शोध के लिए एक अत्यंत उर्वर तथा सक्रिय मुद्दा है. यह प्रश्न केवल इससे ही संबद्ध नहीं है कि यह स्वामित्व सरकारी या कि निजी हो, बल्कि इससे भी है कि यह निजी, स्वदेशी तथा विदेशी स्वामियों में […]

अजीत रानाडे
सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन
बैंकों का स्वामित्व अर्थशास्त्र तथा वित्त के अकादमिक पेशों में शोध के लिए एक अत्यंत उर्वर तथा सक्रिय मुद्दा है. यह प्रश्न केवल इससे ही संबद्ध नहीं है कि यह स्वामित्व सरकारी या कि निजी हो, बल्कि इससे भी है कि यह निजी, स्वदेशी तथा विदेशी स्वामियों में से किसका हो.
स्वामित्व किसका है, क्या इससे बैंकों के कामकाज में कोई फर्क भी पड़ता है? मसलन, पूर्वी एवं केंद्रीय यूरोपीय बैंकों पर हुए एक अध्ययन के अनुसार खासकर संकट के समय बहुराष्ट्रीय बैंक निजी बैंकों से बेहतर प्रदर्शन करते हैं. केनियाई बैंकों पर हुए एक अन्य शोध के अनुसार सरकारी बैंकों का कामकाज निजी बैंकों से बहुत बदतर है.
विश्व के सर्वाधिक बड़े बैंकिंग क्षेत्रों में से एक चीन में है, जहां सरकारी बैंकों का लगभग पूरा ही बोलबाला है. वहां हुए ऐसे अध्ययनों से यह नतीजा निकला कि सरकारी बैंकों का पूंजीकरण बेहतर होता है तथा संकट के समय वे और भी पूंजी का विनियोग करते हैं, न कि चीन के निजी एवं विदेशी बैंकों की भांति अपनी परिसंपत्तियां संकुचित करते हुए ऋणों की वापसी में लग जाते हैं. भारत में भी इस क्षेत्र में व्यापक शोध एवं अध्ययन हो चुके हैं.
कोई भी सहज ही यह सोच सकता है कि चूंकि भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर मुख्य निगरानी आयुक्त, नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक तथा सीबीआइ की तलवार लटकती रहती है, अतः वे अपनी दृष्टि में स्वभावतः ही दकियानूसी होते हैं. क्योंकि इस क्षेत्र में निर्णय न लेने अथवा कुछ भी न करने के लिए कोई सजा या दंड नहीं है, पर यदि कोई ऋण संबद्ध बैंक अधिकारी की सेवानिवृत्ति के पश्चात भी किसी उचित अथवा अनुचित वजह से बुरा सिद्ध हो जाता है, तो अन्वेषण एजेंसियां एवं अदालतें उस अधिकारी को ही पकड़ेंगी.
इसके अलावा, यदि किसी बैंक अधिकारी ने वस्तुतः बहुत अच्छा प्रदर्शन किया हो, तो सार्वजनिक बैंकों की बोनस तथा वेतन-भत्ता नीति उसके लिए किसी विशिष्ट पुरस्कार के कोई भी प्रावधान नहीं करती. मगर निजी बैंकों में यह सामान्य-सी बात है.
मगर इसमें कोई अचरज नहीं कि भारतीय बैंकिंग पर किये गये अध्ययन सार्वजनिक बनाम निजी स्वामित्व के असर को लेकर अनिर्णय की स्थिति में हैं. अलबत्ता, कुछ ऐसी कसौटियां हैं, जो यह बताती हैं कि सार्वजनिक बैंकों ने निजी बैंकों से बेहतर प्रदर्शन किये हैं.
प्रोत्साहनों एवं गवर्नेंस से संबद्ध किंचित निराशावादी नजरिये के बावजूद पिछले कई दशकों के दौरान सार्वजनिक बैंकों के शानदार प्रदर्शन को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. भारत का औद्योगीकरण विदेशी निवेशकों की बजाय मुख्यतः घरेलू बचत के बलबूते सार्वजनिक बैंकों द्वारा प्रदत्त निधियों एवं वित्त से ही संभव हो सका है. तथ्य यह है कि वर्ष 1950-65 के दौरान भारत की औसत राष्ट्रीय बचत दर जीडीपी की महज 11 प्रतिशत थी, जो वर्ष 2000-08 के दौरान तीन गुनी बढ़ कर 33 प्रतिशत तक पहुंच गयी और वर्ष 2008 में इसने 37 प्रतिशत के शीर्ष का स्पर्श कर लिया.
इसी अवधि में पारिवारिक क्षेत्र बचत दर 7 से बढ़ कर 24 प्रतिशत पर पहुंच गयी. इसी तरह, औद्योगिक निवेश दर भी जीडीपी के 12 प्रतिशत से बढ़ कर वर्ष 2008 में 38 प्रतिशत तक चली गयी. भारत के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक इस राष्ट्रीय बचत के संग्रहण का काम सार्वजनिक बैंकों के व्यापक नेटवर्क से भी संभव हो सका, न कि निजी बैंकों अथवा विदेशी बैंकों से.
बचत संग्रहण के अलावा साख तथा निवेश अनुपात में जबरदस्त इजाफा निश्चित रूप से बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद ही हो सका, इस महीने जिसकी पचासवीं वर्षगांठ मनायी जा रही है. 19 जुलाई 1969, शनिवार को रात्रि 8.30 बजे तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राष्ट्र के नाम प्रसारित अपने रेडियो संदेश में इस निर्णय की घोषणा की.
उनके इस संदेश के साथ ही, इस मुद्दे पर कैबिनेट नोट तथा विधेयक के मसौदे (शुरुआत में एक अध्यादेश) को तत्कालीन वित्त सचिव तथा जानेमाने अर्थशास्त्री आइजी पटेल ने तैयार किया था. दरअसल, वे मोरारजी देसाई के निकटस्थ थे, जिन्होंने कुछ ही दिनों पूर्व इंदिराजी के कैबिनेट में उपप्रधानमंत्री एवं वित्तमंत्री के पद से त्यागपत्र दिया था.
प्रधानमंत्री का यह संदेश शब्दशः वैसा ही था, जैसा उसे पटेल ने लिखा था और ऐसा पहली बार ही हुआ था कि प्रधानमंत्री के विख्यात शक्तिशाली सचिव पीएन हक्सर ने उसमें कोई हेरफेर नहीं किया था. आइजी पटेल को बाजार तथा निजी क्षेत्र का हितैषी माना जाता था और यह एक विडंबना ही थी कि उन्हें उस वर्ष के इस अत्यंत दूरगामी परिणामों वाले निर्णय का मसौदा तैयार करना पड़ा.
यहां मैं इस बिंदु की तफसील में नहीं जाऊंगा कि बैंकों के इस राष्ट्रीयकरण ने भारत में अपना प्रयोजन पूरा किया अथवा नहीं. सच तो यह है कि इसके सकारात्मक पक्ष में विपुल परिमाण में प्रमाण मौजूद हैं.
वर्ष 2008 में अमेरिकी कंपनी लेहमन ब्रदर्स के दिवालिया होने के साथ ही कई बड़े कारोबारी अपनी नकदी तथा जमा राशियों को थोक ढंग से निजी बैंकों से हटा कर सार्वजनिक बैंकों में ले गये. यहां तक कि इंफोसिस जैसी कंपनी ने भी एक सार्वजनिक वक्तव्य देकर यह साफ किया कि वह अपनी नकद राशियां स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में स्थानांतरित कर रही है. यह सब ऐसे वक्त में हो रहा था, जब माहौल में एक किस्म का आतंक तारी था और जनता तथा कारोबारी यह समझ रहे थे कि सार्वजनिक बैंक विफल नहीं हो सकते.
पर चूंकि बैंकों के राष्ट्रीयकरण का फैसला लिया गया, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि इसका प्रयोजन पहले ही पूरा नहीं हो चुका है. वाजपेयी सरकार के एक पूर्व वित्तमंत्री ने कहा था कि वह वक्त आ गया है, जब सार्वजनिक बैंकों में सरकार का हिस्सा घटाकर 33 प्रतिशत पर ले आना चाहिए. चूंकि सार्वजनिक बैंकों पर लोगों का भरोसा है, इसलिए अभी तो यह सोचा भी नहीं जा सकता कि कभी बैंकों का बड़े पैमाने पर निजीकरण भी संभव हो सकेगा.
सबसे अच्छी नीति यह होगी कि उनमें सरकारी हिस्से को कम करने के अलावा, उन्हें अपने कामकाज में उचित स्वायत्तता दी जाये, पुरस्कारों तथा प्रोत्साहनों का चलन लागू किया जाये तथा बैंकिंग क्षेत्र में पर्याप्त स्पर्धा सुनिश्चित की जाये. नीतियों की यही वह दिशा है, हम जिस ओर बढ़ रहे हैं और वर्तमान परिस्थितियों में यही सर्वोत्तम विकल्प भी है.
(अनुवाद: विजय नंदन)
Prabhat Khabar Digital Desk
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