22.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

सम्मानित रोजगार की बढ़ती आकांक्षा

पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक pavankvarma1953@gmail.com हाल ही में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए कांग्रेस नेता नवजोत सिंह सिद्धू ने अपने श्रोताओं से भावनात्मक अपील की, ‘आपका एक गलत वोट आपके बच्चे को चायवाला, पकौड़ेवाला या चौकीदार बना सकता है. बेहतर हो कि बाद में पछताने की बजाय आप वैसी संभावना […]

पवन के वर्मा
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
pavankvarma1953@gmail.com
हाल ही में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए कांग्रेस नेता नवजोत सिंह सिद्धू ने अपने श्रोताओं से भावनात्मक अपील की, ‘आपका एक गलत वोट आपके बच्चे को चायवाला, पकौड़ेवाला या चौकीदार बना सकता है.
बेहतर हो कि बाद में पछताने की बजाय आप वैसी संभावना से अपना बचाव पहले ही कर लें.’ प्रथम दृष्टि में ही यह अपनी वरीयता का बोध करानेवाली एक संभ्रांतीय-सी टिप्पणी प्रतीत होती है. कोई भी पेशा चाहे वह कितना भी निम्न जैसा लगता हो, सम्मान का पात्र होता है. आजीविका की एक अपनी ही गरिमा होती है, जिसे जलील नहीं किया जा सकता. एक दिवस के एक ईमानदार काम का, भले ही वह जिस किस्म का हो, एक अंतर्निहित मूल्य होता है, जिसे नीचा दिखाने की जरूरत ही नहीं.
नवजोत सिंह सिद्धू की इस टिप्पणी से दिलचस्प समाजशास्त्रीय सवाल भी उठ खड़े होते हैं, जो हमारे समाज को आईना दिखाते हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि हम एक ऐसे समाज के सदस्य हैं, जिसकी मानसिकता सामाजिक व्यवस्था में पदानुक्रम को अनिवार्यतः स्वीकारती चलती है.
हमारे यहां हजारों वर्षों से गैर-बराबरीपूर्ण जाति प्रथा चली आ रही है, जिसने बड़ी तादाद में लोगों को सिर्फ उनके जन्म संयोग की वजह से प्रताड़ित तथा शोषित किया है. इस प्रणाली में कुछ पेशे तथा रोजगार ‘नीची’ जातियों से संबद्ध कर दिये गये, जिनके सदस्यों को सामाजिक रूप से बहिष्कृत कर दिया गया.
आज इस जाति प्रथा को आधिकारिक रूप से अस्वीकार्य समझा जाता है और लोकतांत्रिक सशक्तीकरण ने इसकी दमघोंटू जकड़ ढीली कर दी है.
मगर विभिन्न स्तरों में बंटे समाज की मानसिकता हमारे दैनंदिन जीवन में स्पष्टतः दिखती ही रहती है. समाज में पदानुक्रमों की संरचना परिवर्तित होती रह सकती है, पर एक भारतीय हमेशा ही ‘वरीय’ तथा ‘अधीनस्थ’ के रिश्ते से ग्रस्त होता है. यह शक्ति के इस पदानुक्रम की स्वीकार्यता ही है, जो लोकतंत्र तथा समानता जैसी अवधारणाओं के अर्थ एवं संचालन को भी एक विशिष्ट भारतीय रंग दे देती है.
ऐसे समाज का पहला लक्षण अपनी हैसियत का जूनून होता है. जब किसी व्यक्ति का सारा मूल्य पदानुक्रमिक पैमाने पर उसकी स्थिति पर टिका हो, तो अपनी हैसियत का आग्रह (और दूसरों द्वारा उसकी स्वीकार्यता) अत्यंत अहम हो उठती है. अपनी स्थिति कायम रखने के लिए किसी को भी अपने अधीनस्थों से ऊपर तथा वरीयों से नीचे दिखना ही चाहिए.
इन समीकरणों में कोई भी हेर-फेर नहीं हो सकता. अतीत में यह स्थिति जाति के अनुसार निर्दिष्ट थी. अब ऐसी रूढ़िवादिताएं धुंधली पड़ रही हैं, पर पदानुक्रम का आग्रह न सिर्फ पूरी तरह कायम है, बल्कि कुछ अर्थों में और गहरा हुआ है. नयी अनिश्चितताओं तथा नये अवसरों ने अपनी एवं औरों की स्थिति के प्रति संवेदनशीलता और भी बढ़ा दी है.
सिद्धू की टिप्पणी इसी संदर्भ में देखी जानी चाहिए. एक चायवाला, पकौड़ेवाला अथवा चौकीदार होने में कुछ भी गलत नहीं है, पर हमारे समाज की पदानुक्रमिक प्रवृत्ति एवं अपनी हैसियत को दिये जानेवाले महत्व की वजह से कुछ कामों को निम्न तथा कुछ को वरीय या वांछनीय समझा जाता है. इस तरह, जहां हम सिद्धू की टिप्पणी की निंदा कर सकते हैं, वहीं तथ्य यह है कि उनके द्वारा निर्दिष्ट पेशे हमारे मध्य वर्ग के एक विशाल दायरे के लिए अवांछनीय हैं.
यहां किसी व्यक्ति द्वारा पकौड़े या चाय बेचकर हासिल की जा रही कमाई का कोई सवाल नहीं है. ऐसी कई दुकानें हो सकती हैं, जो इन क्षेत्रों में अपनी प्रसिद्धि के झंडे गाड़ बहुत लोकप्रिय हो अपार आय और मुनाफा कमा चुकी हों. पर ऐसे पेशों में हैसियत का जो अभाव अंतर्निहित है, उसकी भरपाई पैसा नहीं कर सकता. पैसा अंततः हैसियत खरीद सकता है, पर पारंपरिक अर्थ में हैसियत केवल पैसे का ही परिणाम नहीं हो सकती.
इसकी वजह यह है कि हम एक अत्यंत महत्वाकांक्षी समाज हैं. एक विशाल बहुमत में मध्यवर्गीय माता-पिता अपने बच्चों के लिए डॉक्टर, इंजिनियर, कॉरपोरेट अधिकारी अथवा उच्चवर्गीय सिविल सेवाओं के सदस्य बनने से कम कुछ भी नहीं चाहते.
सफेद कॉलर नौकरियों को तरजीह, जबकि शारीरिक श्रम के पेशों के प्रति अरुचि दिखाई जाती है. किसी भी जॉब पर लगा ठप्पा अहम होता है. उसे दुनिया को यह संदेश देना ही चाहिए कि उनके बच्चे एक उर्ध्वगामी सीढ़ी के पहले पायदान पर पहुंच चुके हैं. एक चायवाला कॉरपोरेट जगत या सरकारी दफ्तर के एक नये कर्मी से कहीं ज्यादा कमाई कर सकता है, पर पैसा ‘पद’ की पूर्ति नहीं कर सकता.
यही कारण है कि एक पकौड़ेवाला एक बीकानेरवाला बनना चाहता है, एक चायवाला किसी बैरिस्टा दुकान का स्वामी बनना चाहता है, जबकि एक चौकीदार किसी सिक्योरिटी एजेंसी का मालिक बनने को लालायित है. उस पर भी अपने बच्चों के लिए उनकी इच्छा यह होगी कि वे और आगे बढ़कर ज्यादा ‘सम्मानित’ जॉब करें.
हमारा समाज विराट सामाजिक-आर्थिक असमानता का शिकार है. इसके बावजूद, ऐसा नहीं है कि कोई भी व्यक्ति स्व-रोजगारी या सड़कों पर रेवड़ीवाला बनना नहीं चाहेगा. कृषि क्षेत्र अथवा शहरों की अभावग्रस्त आबादी के ऐसे करोड़ों बेरोजगार अथवा अर्ध बेरोजगार लोग हैं, जो किसी भी साधन की सहायता से आजीविका हासिल करने को बेताब हैं.
लेकिन, वे भी मौका पाते ही अपनी स्थिति से ऊपर उठने को भी लालायित होते हैं. सो यदि ईमानदारी से सोचें, तो हमें सिद्धू के कथन को एक सूक्ष्म दृष्टि से देखना चाहिए. एक स्तर पर वे निश्चित रूप से एक संभ्रांत मानसिकता प्रदर्शित करते-से लगते हैं.
एक-दूसरे स्तर पर वे एक अत्यंत महत्वाकांक्षी वर्ग की भावनाएं ही व्यक्त करते प्रतीत होते हैं. इन दो ध्रुवों के बीच पाखंड के लिए भी पर्याप्त अवकाश मौजूद है. हमारे मध्यवर्ग तथा बुद्धिजीवी वर्ग के बहुत से सदस्य सिद्धू के कथन की निंदा तो करेंगे किंतु स्वयं अपने बच्चों को वे उनके द्वारा निर्दिष्ट पेशों में कदापि नहीं भेजना चाहेंगे.
भारत को एक विशाल जनसांख्यिक लाभ हासिल है. हमारी आबादी का 65 प्रतिशत से भी अधिक 35 वर्षों से नीचे का है. प्रतिदिन शिक्षित बेरोजगारों की एक फौज रोजगार के बाजारों में आ रही है, जिनकी संख्या रिक्तियों से अधिक है.
एक समाधान यह है कि अधिक से अधिक बेरोजगार अपना उद्यम शुरू करें. पर क्या वे स्वेच्छा से चायवाला, पकौड़ेवाला या चौकीदार बनना चाहेंगे, इस सवाल को एक ईमानदार जवाब की तलाश है.
(अनुवाद : विजय नंदन)

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें